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Tuesday, January 17, 2012

जब पगडंडियां बनीं महामार्ग

-----------पथ के दावेदार (प्रभात खबर के 20 वर्ष पूरा होने की कहानी, साथियों की जुबानी) - विष्णु राजगढ़िया - अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्से में बसे रांची जैसे छोटे से शहर से जब एक सर्वथा नये प्रकाशन संस्थान ने वर्ष 1984 में दैनिक प्रभात खबर का प्रकाशन शुरू किया था, तो किसने सोचा होगा कि यह नयी सदी में हिन्दी पत्रकारिता की मुख्य धारा का अभिन्न अंग होगा. इस रोमांचक यात्रा की स्मृतियां वस्तुत रघुवीर सहाय की महज तीन पंक्तियों की कविता से बात शुरू करने को प्रेरित करती है- नीचे घास ऊपर आकाश ऐसा ही होता यदि जीवन में विश्वास वर्ष 1984 के स्वाधीनता दिवस से प्रारंभ इस यात्रा के आरंभिक पांच वर्षों ने एक तरह से इसी मिथक को आधार प्रदान किया कि हिन्दी पत्रकारिता में तथा कथित राष्ट्रीय अखबार ही मुख्यधारा हैं और छोटे शहरों से छोटी पूंजी वाले अखबारों की अपनी आकांक्षाएं भी छोटी-ही रखनी चाहिए. 1989 के अक्तूबर माह में नये, वर्तमान प्रबंधन, ने जब इस मिथक को तोड़ने की चुनौती कबूल की तो विरासत में एक अल्प-प्रसारित, मृतप्राय दैनिक का बैनर मिला, अधिसंरचना के नाम पर छोटा-सा दफ्तर एवं अप्रासंगिक होती तकनीक मिली और पूंजी के नाम पर स्वयं जीवनक्षम होने की चुनौती. इन प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रारंभ यात्रा ने यदि छोटानागपुर की पठारी पगडंडियों को अपने राजमार्ग में बदल डाला तो यह उसी विश्वास का प्रतिफ़ल है जो नीचे अपने लिए घास की तलाश करता है तो ऊपर आकाश की. वह दौर भारतीय समाज और राजनीति में गहराती बेचैनी और तीव्र परिवर्तनों का दौर था जब भारतीय जनमानस तीसरी धारा के तथाकथित समाजवादी विकल्पों को आजमाने और ठुकराने के प्रयोग कर रहा था और जिसने अंतत थक-हारकर वापस कांग्रेस को ही बागडोर थमा दी थी. ठीक इसी दौर में क्षेत्रीय जनाकांक्षाभी तीव्र कुलांचे भर रही थीं और अलग झारखंड राज्य के पूर्ववर्ती आंदोलन का एक ऐसा जटिलताओं से भरा स्वरूप उभरकर सामने आ चुका था, जिसमें राज्यतंत्र से सुलह-समझौते की पेशकश थी तो आर्थि‍क नाकेबंदी और झारखंड बंद के रास्ते भी, नेतृत्व के प्रति अविश्वास था तो उसे साथ लेने की विवशता भी. उस वक्त के स्वघोषित झारंखड के हरे रंग पर लाल और भगवे रंगों के अलग-अलग प्रभावों से यह जटिलता और गहरी होती जा रही थी. प्रभात खबर की विकास-यात्रा के साथ वक्त के उस दौर का यह संक्षिप्त विवरण दरअसल वह पृष्ठभूमि है जिसने तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों के मिथक के समानांतर, आंचलिक पत्रकारिता की अन्यथा तुच्छ धारा को कालांतर में मुख्यधारा में बदल डाला. आज अगर झारखंड की राजधानी रांची और दो प्रमुख औद्योगिक केंद्रों जमशेदपुर एवं धनबाद के साथ देवघर व दो पड़ोसी राज्यों बिहार और बंगाल की राजधानियों- पटना और कोलकाता से प्रभात खबर अपने सफ़ल संस्करणों का शानदार नेटवर्क तैयार करने का गौरव रखता है; तो कहना नहीं होगा कि हिन्दी पत्रकारिता अब राष्ट्रीय अखबार की मुख्य धारा के मिथक से पूरी तरह स्वतंत्र हो चुकी है. नये दौर के सफ़र की शुरूआत के साथ ही प्रभात खबर ने देश के जनमानस की उक्त बेचैनी और स्वायत्तता की क्षेत्रीय जनाकांक्षा का वाहक बनने का रिश्ता कबूल किया और नयी शताब्दी जहां भारत के मानचित्र पर झारखंड के रूप में एक नये राज्य के उदय का गवाह बनी, वहीं इसके हमसफ़र के बतौर प्रभात खबर को भी हिन्दी पत्रकारिता के बटवृक्ष की फ़लती-फ़ूलती शाखाओं के बतौर देखा गया. इस विकास क्रम ने नये झारखंड राज्य के स्वाभाविक और नसैर्गिक तौर पर अपने अखबार के बतौर प्रभात खबर की पहचान करायी और तमाम सर्वेक्षणों के आंकड़े भी झारखंड के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक के बतौर प्रभात खबर के नाम की गवाही देने लगे. झारखंड ही नहीं, विशेष परिशिष्ट की इस श्रृंखला में बिहार पर निकाला गया अंक भी विभाजन के उपरांत बिहार की बेचैनी और सवालों को संकलित करनेवाले महत्वपूर्ण कार्य के बतौर देखा गया. झारखंड आंदोलन से प्रभात खबर का गहरा रिश्ता रहा है. अलग राज्य बनने के बाद यह भी कहा गया कि इस आंदोलन को इस अखबार ने जीवित रखा. इसलिए 15 नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के अवसर पर प्रभात खबर ने 86 पेज का विशेष परिशिष्ट निकाला. उस परिशिष्ट का मूल मर्म था कि झारखंड के पीछे एक सार्थक जीवन-दृष्टि, संघर्ष, परंपरा और रचनात्मकता है, और इसी नींव पर झारखंड का भविष्य गढ़ा जा सकता है. बाद में उस परिशिष्ट को राजकमल प्रकाशन ने झारखंड दिसुम मुक्तिगाथा और सृजन के सपने नामक पुस्तक में संयोजित करके यादगार बना दिया. उस दौर में झारखंड के विकास के रास्ते को लेकर चलायी गयी गहन विचार मंथन की प्रक्रिया भी प्रभात खबर की प्रमुख उपलब्धियों में से एक है. वह क्या है जो प्रभात खबर को अखबारों की भीड़ से अलग, एक स्वतंत्र पहचान देता है? क्या इसका रहस्य अपने नये पाठकवर्ग का विस्तार उन कल-कारखानों और सुदूर आदि‍वासी इलाकों के मेहनतकश लोगों के बीच तलाशने की उन दुरूह कोशिशों में छुपा है, जिनकी शैक्षणिक और आर्थि‍क हैसियत के भ्रम और असलियत ने अब तक तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों को उनसे सर्वथा दूर रखा था? तपकरा और ठेठईटांगर के किसी सुदूर आदि‍वासी टोले की नुक्कड़ पर चाय-पकौड़ी की किसी दुकान में यदि प्रभात खबर की एकमात्र प्रति दिख पड़ती है, तो उसे हमने कभी प्रसार की संख्या के आंकड़ों के बतौर नहीं बल्कि उस एकमात्र प्रति का अक्षर-अक्षर तक बांच जाने वाले उन सैकड़ों नागरिकों की अलौकिक शक्ति के बतौर देखा है, जो अंतत: राज और समाज का स्वरूप गढ़ती हैं. हमने इन नामालूम लोगों के साथ जीवंत रिश्ता गढ़ने की हर संभव कोशिशों को साकार किया और पत्रकारिता में लेखन से पाठन तक मौजूद तमाम अभि‍जात्य मिथकों को धता बताते हुए उन नायकों की तलाश की जो भविष्य का भारत और झारखंड गढ़ रहे थे. इस प्रक्रिया ने जहां हमें सुदूर ग्रामीण इलाकों और औद्योगिक बस्तियों में नये, नौजवान, स्फ़ूर्तिपूर्ण संवाददाताओं और लेखकों का शानदार नेटवर्क तैयार करने में आशातीत सफ़लता दिलायी, वहीं प्रतिबद्ध पाठकों का वह विशाल समूह भी, जो पत्रकारिता से सरोकारों के जुड़ाव का अर्थ समझता-बूझता है. कोई अखबार सरकार से जुड़ा है या सरोकार से, पाठकों में इसकी समझ के हमारे भरोसे ने लगातार सकारात्मक नतीजे दिलाये हैं. इस तरह क्षेत्रीय जनाकांक्षाओं और इनके वाहकों की तमाम धाराओं ने जहां प्रभात खबर में अभिव्यक्ति पायी, वहीं स्थानीय बुद्धिजीवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, विद्वानों और विशेषज्ञों की प्रतिभा ने भी इसके पन्नों की शोभा बढ़ायी. लेकिन प्रभात खबर महज अपने पन्नों पर सांस्कृतिक, बौद्धिक सामग्री की प्रस्तुति की भूमिका तक सीमित नहीं रहा बल्कि गतिविधि-केंद्रों की अनुपस्थिति को देखते हुए इसने अपने लिए एक आयोजक की भूमिका भी कबूल की. इस भूमिका के तहत व्याख्यानमाला की श्रृंखला में रांची से लेकर पटना, धनबाद, जमशेदपुर और कोलकाता स्थित अपने प्रकाशन केंद्रों में देश के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों का पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद कराया. व्याख्यानमाला के वक्ताओं में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, ख्यातिलब्ध पत्रकार प्रभाष जोशी, पूर्व नौकरशाह और पूर्व राज्यपाल प्रभात कुमार जैसे व्यक्तित्व थे तो विनोद मिश्र जैसे नक्सलवादी भी. अमेरिका में लेखन और अध्यापन से जुड़े बिहार के नौजवान अमिताभ कुमार से लेकर चुनाव विश्‍लेषक योगेंद्र यादव और प्रसिद्ध समालोचक डॉ नामवर सिंह जैसे व्यक्तित्वों द्वारा प्रभात खबर व्याख्यानमाला के तहत बोले गये एक-एक शब्द हमारी अनमोल थाती हैं. आयोजक की इस भूमिका के अगले पड़ाव में हमने खलनायक मोगैंबो के बतौर कुख्यात अमरीश पुरी को कनुप्रिया की प्रस्तुति के लिए आमंत्रित करके उनके उत्कृष्ठ रंगकर्मी व्यक्तित्व से भी अपने पाठकों का परिचय कराया. मुद्दों के बतौर आमजन की पीड़ा से लेकर राष्ट्र और झारखंड के नवनिर्माण से जुड़े सवालों को तलाशने की निरंतर कोशिशों ने हमें इस इलाके में पत्रकारिता की पूर्वतर्ती धाराओं के विपरित नित नये प्रयोगों के आयाम दिये. यह प्रक्रिया पाठकों और जनमानस को मथनेवाले सवालों और समस्याओं को अखबार के पन्नों पर स्थान देने से लेकर उनसे सीधे संवाद की कोशिशों तक विस्तृत आकार लेती गयी. फ़िर चाहे वह चुनावों के दौरान मुद्दों की समझ और तलाश के लिए आयेजित परिचर्चाएं और गोष्ठियां हों या फ़िर पाठक और अखबार के रिश्तों पर सीधे संवाद के लिए प्रभात खबर आपके द्वार की श्रृंखला रांची शहर की परिधि में बसे आदि‍वासीबहल गांव की समस्याओं को निरंतर सामने लाकर सरकार और प्रशासन को क्रियाशील करने का प्रयोग भी इन्हीं कोशिशों का एक अंग है. पुस्तक मेलों में जीवंत भागीदारी हो या फ़िर शैक्षणिक गतिविधियों के प्रसार की कोशिशों में प्रत्यक्ष उपस्थिति, सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं और खेलकूद की गतिविधियों का आयोजन करना हो या फ़िर कैरियर से संबंधित सूचनाओं के प्रसार के शिविर, हर जगह प्रभात खबर ने खुद को महज एक मूकदर्शक, तटस्थ खबरनवीस की भूमिका से कहीं आगे ले जाकर खुद को हर गतिविधि का साझेदार बनाया. इस प्रक्रिया में समाचारों के चयन और प्रस्तुति ने जहां जनता के हितों से जुड़े सरोकार सदा प्रमुख नीति निर्धारक प्रतिमान रहे, वहीं न्यूज फ़ॉर यूज की एक अंर्तधारा को भी सदैव प्रवाहमान रखा गया. इसके पीछे दृष्टियह कि पाठकों को तमाम ऐसी जानकारियां चाहिए, जिनका उनके दैनंदिन के जीवन और भविष्य की योजनाओं से सीधा जुड़ाव है. उन्हें उनके मतलब की पूरी और सही जानकारियां देना भी हमारा काम है और इसके तहत शिक्षा-जगत से जुड़ी आवश्यक सूचनाओं से लेकर कैरियर, व्यवसाय और प्रोद्योगिकी की नवीनतम जानकारियां उपलब्ध कराने का सिलसिला निरंतर जारी रखा गया. मार्केटिंग वालों की भाषा में कहें तो इसे हमने वैल्यू-ऐड के बतौर देखा, जहां किसी उपभोक्ता को उत्पाद के साथ कोई अतिरिक्त लाभ भी मिल जाता हो. समाचार, विचार और गतिविधियों के स्तर पर जहां प्रभात खबर ने अभिनव प्रयोग किये, वहीं समाचार संकलन, प्रेषण और मुद्रण की दुनिया में नवीनतम बदलावों और तकनीकों की कभी उपेक्षा नहीं की, बल्कि वक्त के साथ तकनीक को बदलते जाने में सदैव अग्रणी रहा. कंप्यूटराइज्ड संपादन और कंप्यूटराइज्ड लेखन के लिए अपनी पूरी टीम को मानसिक और तकनीकी तौर पर तैयार करनेवाले अखबारों की अग्रिम पंक्ति में प्रभात खबर ने अपना स्थान बनाये रखा और जिला मुख्यालयों से लेकर सुदूर क्षेत्रों तक मोडम या फ़ैक्स केंद्रों की व्यवस्था के जरिये समाचारों के त्वरित संकलन और प्रेषण का अनमोल नेटवर्क तैयार कर लिया. लिफ़ाफ़े और कुरियर अब हमारे लिए अतीत की चीज बन चुके हैं और देर रात की खबरें भी सुबह अखबार के पन्नों पर अपना स्थान रखती है. नये स्वरूप में प्रभात खबर की इस विकास-यात्रा का एक अहम पहलू यह भी है कि इस चुनौती को उस दौर में स्वीकार किया गया था, जब देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के बूम का हौव्वा था और इससे प्रिंट मीडिया पर तथाकथित खतरे की भविष्यवाणियां की जा रही थीं. लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में छोटे शहर से, अल्प पूंजी और अपर्याप्त संसाधनों के बावजूद पाठकों से रिश्ते और जन-सरोकार से जुड़ाव के जज्बे को अपनी पूंजी मानकर एक सर्वागीण, सफ़ल अखबार निकालने के संकल्प ने कभी पीछे मुड़कर देखने का अवसर ही नहीं आने दिया. इलेक्ट्रानिक मीडिया का आतंक कभी हमारी चिंताओं का अंग नहीं बन सका और फ़िर इंटरनेट के जमाने में जब यह कहा जाने लगा हो कि अब तो इंटरनेट ही अखबार का स्थान ले लेगा, इंटरनेट हमारे लिए किसी प्रतियोगी के बतौर सूचना के एक नये माध्यम और सहयोगी की ही भूमिका में सामने आया. एक ओर हमने अपने इंटरनेट संस्करण के जरिये अपने अखबार को विस्तार दिया तो दूसरी ओर देश-दुनिया की अद्यतन जानकारियां पाठकों तक पहुंचाने की दिशा में इंटरनेट का भरपूर सहयोग लिया. झारखंड अलग राज्य बनने के उपरांत इतिहास ने हमें जो चुनौतियां सौंपीं, वे अपेक्षा से कहीं अधिक गहरी निकलीं. एक नये राज्य के गठन के साथ झारखंडी जनमानस की स्वायत्तता और विकास की असीम आकांक्षाएं जुड़ी थीं और इसके अनुकूल समस्त संस्थाओं के नये सिरे से पुनर्गठन का दायित्व नये शासन-प्रशासन के कंधों पर. इस दिशा में नये शासन-प्रशासन से लेकर तमाम संस्थाओं से जिन नयी भूमिकाओं की अपेक्षा थीं, उन्हें स्वरूप प्रदान करने की चुनौतियां शेष हैं और इस प्रक्रिया ने असीम जनाकांक्षाओं को विभिन्न रूपों में निराशा उत्पन्न की हैं. स्वाभाविक तौर पर प्रभात खबर ने इन असीम जनाकांक्षाओं और उनके बिखराव की पूरी प्रक्रिया पर अपनी पैनी नजर रखी है और विकास के रास्तों से जुड़े तमाम सवालों पर जनमानस की बेचैनी को अभिव्यक्ति देने का कोई अवसर चुकने नहीं दिया है. इस क्रम में नये और आकार ले रहे शासन-प्रशासन की उपलब्धियों को जहां हमने कभी उपेक्षित नहीं किया, वहीं इसकी असफ़लताओं और अनियमितताओं को उजागर करने का दायित्व भी प्रभात खबर ने ही कबूल किया, भले ही इसके लिए कई बार शासन-प्रशासन की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा हो. आज प्रभात खबर के 7 संस्करण पूरे झारखंड और बिहार-बंगाल में आंचलिक पत्रकारिता की अप्रतिम सफ़लता का पताका लहरा रहे हैं और हमें गर्व है कि इन तीन राज्यों में प्रभात खबर ने खुद को बदलते वक्त की हर धड़कन का अभिन्न साझेदार बना रखा है.

Saturday, July 9, 2011

आज अख़बारों को संपादक नहीं, मैनेज़र चाहिए : हरिवंश


हरिवंश जी देश के मूल्‍यवान पत्रकार हैं। बड़े महानगरों में चमक से भरी पत्रकारिता का लोभ छोड़ कर आज से दो दशक पहले वे रांची जैसे बियाबान में गये, एक मरते हुए अख़बार को ज़ि‍न्‍दगी देने। आज रांची राजधानी है, और हरिवंश जी का अख़बार प्रभात ख़बर पूरे प्रांत का नंबर वन अख़बार है। इन दो दशकों में पत्रकारिता पर बाज़ार हावी हुआ, लेकिन अपने अख़बार के लिए बहुत सारे समझौतों के बावजूद हरिवंश जी ने प्रभात ख़बर की गरिमा कम नहीं होने दी। रायपुर से छपने वाली पत्रिका मीडिया विमर्श के लिए प्रभात ख़बर के ही एक स्‍थानीय संपादक विष्‍णु राजगढ़ि‍या ने अपने प्रधान संपादक हरिवंश से पत्रकारिता के इस दौर में संपादक के बदलते अभिप्राय पर बात की। उसका एक ज़रूरी अंश हरिवंश जी की अनुमति से हम मोहल्‍ले में बांच रहे हैं।
इस अंश में हरिवंश जी ने बताया है कि क्‍या संपादक की भूमिका और उसका काम आज भी वही है या समय के साथ इसमें कोई बदलाव आया है। अगर बदलाव आया हो, तो किस-किस दौर में, किस-किस तरह के बदलाव आये और उनकी क्‍या वजह रही।


एक धारा है, जो आज संपादक को ग़ैरज़रूरी मानती है। उसका मानना है कि संपादक के बगैर अख़बार बेहतर तरीके से चल, निकल और बढ़ सकते हैं। भारत के अख़बारों के लिए प्रयोगों का नेतृत्‍व ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ करता है। इस अख़बार में पहले श्‍यामलाल या गिरिलाल जैन जैसे लोग थे या दूसरे अख़बारों में एस मूलगांवकर, अजीत भट्टाचार्जी, वीजी वर्गीज, अरुण शौरी, कुलदीप नैयर, एनजे नानपुरिया, प्रेम भाटिया, प्राण चोपड़ा, दुर्गा दास, चलपति राव, फेंक मोरेस जैसे लोग रहे हैं। और पीछे लौटें तो एक से एक दृष्टिसंपन्‍न संपादक हुए। आज़ादी के बाद हिंदी में अज्ञेय, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्‍याम जोशी, अक्षय जैन, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे लोग हुए। मराठी में गोवंद तलवलकर या गुजराती में हरेंद्र दवे या बांग्‍ला में गौरकिशोर घोष या अन्‍य राज्‍यों में या क्षेत्रीय भाषाओं में भी अनेक ऐसे जाने-माने संपादक रहे, जिन्‍हें आज समाज श्रद्धा और विनय से याद करता है। उनकी भूमिका ने समाज में प्रगतिशील चेतना पैदा करने में मदद की। मूलत: इन दिग्‍गज पत्रकारों-संपादकों ने अपनी निजी गरिमा रखते हुए बेखौफ सवाल उठाये। जहां अन्‍याय होता दिखा, उसके प्रतिकार में खड़े रहे। चूंकि ऐसे लोगों का निजी जीवन इतना साफ-सुथरा, पारदर्शी और ईमानदार था कि वे पूरी व्‍यवस्‍था के लिए चुनौती बन जाते थे। उनकी बातें गौर से सुनी जाती थीं।

आज संपादक पद का क्षय खुद संपादकों की वजह से ज्‍यादा हुआ है। प्रबंधन तो बाद में आता है। आमतौर से यह धारणा थी कि भारतीय प्रेस ‘जूट प्रेस’ है। देश के आज़ाद होते ही यह मामला स्‍वर्गीय फिरोज गांधी ने संसद में उठाया था कि भारतीय प्रेस बड़े औद्योगिक घरानों के कब्‍जे में है। फिर भी जिसे ‘जूट प्रेस’ कहा गया, उसी ‘जूट प्रेस’ पर भारतीय मानस सबसे अधिक यकीन करता था। वीजी वर्गीज ने सिक्किम के विलय के ख़ि‍लाफ़ लिखा या इंदिरा-राजीव गांधी के जमाने में प्रेस ने भ्रष्‍टाचार के अनेक प्रकरण उजागर किये। धीरे-धीरे प्रेस ने अपने काम से एक विश्‍वास अर्जित किया कि प्रेस बेख़ौफ़ होकर गंभीर मुद्दों को उठाता है, ताक़तवर से ताक़तवर लोगों के ख़ि‍लाफ़ ख़बरें छापता है। प्रेस को निडर होने की नैतिक ताक़त समाज से मिली। आज भी आप प्रणय रॉय, राजदीप सरदेसाई, स्‍वर्गीय सुरेंद्र प्रताप सिंह, विनोद मेहता वगैरह को देखें तो प्रेस की भूमिका का एक एहसास होता है। परंतु बड़े पैमाने पर आज प्रेस की भूमिका संपादकों की वजह से बदल गयी है। हालांकि इसमें अपवाद भी काफी मिलेंगे। अनेक योग्‍य ईमानदार और साहस के साथ काम करने वाले संपादक हिंदी से लेकर अन्‍य भाषओं में हैं। लेकिन हिंदी जगत में, हिंदी अख़बारों की दुनिया में एक बड़ा परिवर्तन आया है। अब संपादक बनने के लिए योग्‍यता, बौद्धिक क्षमता या उसका ईमानदार होना ग़ैरज़रूरी चीज़ बन गये हैं। संपादक के चयन की मुख्‍यधारा है कि आप कैसे अख़बार के प्रबंधन के लिए चीज़ों को मैनेज कर सकते हैं। आप किस राजनीतिक दखल या मदद से अख़बार के प्रतिष्‍ठानों में कुर्सी पा सकते हैं। लाइजनिंग के काम में आप कितने माहिर हैं। प्रोफेशनल एक्‍सपर्टाइज़ अब संपादक बनने के लिए ज़रूरी नहीं है। अख़बार में काम करने वाले बड़े पदों पर बैठे लोग अब खुद उद्योगपति बनना चाहते हैं और वे संपादक के रूप में अख़बार का इस्‍तेमाल इसी उद्देश्‍य से करते हैं। इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। यह बड़े समूहों में हो रहा है।

दूसरी ओर आज संपादकों की कोई सोशल एकाउंटिबिलिटी नहीं रह गयी है। ख़बरों का चयन संपादक अपने उद्योगपति बनने की दृष्टि से ही करते हैं। मसलन, जिस राज्‍य से अख़बार निकल रहे हों, वहां के मुख्‍यमंत्री को किसी महत्‍वपूर्ण सर्वेक्षण में सबसे नाकाबिल माना जाता है, लेकिन उसकी ख़बर जो अख़बार इस सर्वेक्षण के काम में लगा है, वही नहीं छापेगा। 1991 के बाद भारत में उदारीकरण के दौर ने अनेक संस्‍थाओं को गहराई से प्रभावित किया। अख़बार जगत भी इससे अप्रभावित नहीं है। बाज़ार बनती दुनिया में माना जाने लगा है कि संपादक का काम मैनेज़र भी कर सकता है। अनेक बड़े अख़बार समूहों में संपादक की छुट्टी भी कर दी गयी और ब्रांड मैनेज़र उनका काम संभालने लगे।

परंतु इन तीन-चार वर्षों में इन बड़े अख़बारों में भी एक बड़ा परिवर्तन आया है। मसलन, ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ ने अपने कुछ संस्‍करणों में संपादकीय पेज ग़ैरज़रूरी मान कर ख़त्‍म कर दिया था। पुन: उसे शुरू करना पड़ा है। किताबों पर एक पन्‍ना, गंभीर विषयों पर बहस, पुराने दार्शनिकों पर सामग्री प्रकाशन जैसी चीजें अब ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ में दिखाई देने लगी हैं। स्‍पष्‍ट रूप से जो अख़बार ‘पेज़ थ्री’ की संस्‍कृति का प्रतिनिधित्‍व करने वाला कहा जाता था, अब वह अंग्रेज़ी का एक बेहतर, गंभीर और बड़े समुदाय में पढ़ा जाने वाला अख़बार है। यह परिवर्तन उल्‍लेखनीय है। प्रतिस्‍पर्धा के इस दौर में समृद्ध कंटेंट ही अख़बारों का भविष्‍य तय करेंगे और यह कंटेंट तय करने का काम समाज को अधिक नज़दीक से समझने वाला संपादकीय समूह ही कर सकता है। उपभोक्‍ताओं से ताल्‍लुक रखने वाला बाज़ार या बाज़ार के विशेषज्ञ मैनेज़र नहीं कर सकते।

Thursday, June 30, 2011

परका ! तूने किया क्या

विष्णु राजगढि़या
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साल का आखिरी महीना कुछ अजीब-सी उलझन लेकर आने वाला है. सोलह दिसंबर को मैं पूरे पचास साल का हो जाऊंगा. हालांकि मेरे लिए जन्मदिन वगैरह की तारीखें कभी महत्वपूर्ण नहीं रहीं और न ही इस बार भी खुद मुझे ऐसे किसी दिन का इंतजार है. लेकिन न जाने किस तरह दोस्तों को यह बात मालूम हो गयी है. सबकी जिद है कि इस बार तो जन्मदिन मनाना ही है. पचासवां साल है आखिर. गोल्डन जुबली वर्ष. आदमी तो क्या, किसी भी देश, समाज और संगठन के लिए पचास साल का मौका काफी मायने रखता है. फिर मेरे जैसे आदमी को तो वैसे भी कम-से-कम इस बार थोड़ा-कुछ कर ही लेना चाहिए, जिसने अब तक की जिंदगी में कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया.

मेरे दोस्तों में रवि कुछ ज्यादा ही उत्साहित था. संभवतः उसी ने सबसे पहले किसी एक्सक्लूसिव खबर की तरह इस बात को लीक भी किया था कि इस साल सोलह दिसंबर को प्रकाश का पचासवां जन्मदिन आने वाला है. रवि ने अपने तौर पर ऐलान कर दिया था कि चाहे कुछ भी हो, इस बार तो प्रकाश से जन्मदिन की पार्टी लेकर ही रहेगा. इसे लेकर रवि के पास तर्क भी जोरदार हैं. उसका कहना है कि अंग्रेज लोग इसी तरह हर मौके को खुशी के मौके के बतौर सेलीब्रेट करके बोर जिंदगी में नये रंग भर लेते हैं. रवि का कहना था कि पूरी जिंदगी तो यूं ही ब्लैक एंड व्हाइट में गुजार दी, और बेशक आगे भी गुजारोगे, कम-से-कम पचास साल के मौके पर तो थोड़ा रंगीन हो जाओ. एकाध बार वह ऐसा भी कह बैठा कि बहुत कंजूसी कर ली, अब और नहीं चलेगी. इस बार तो अंटी ढीली करा ही लेंगे यार लोग!

रवि ऐसा कहता मानो जिंदगी भर का हिसाब चुकता कर लेना है. मौज-मस्ती के इन फार्मूलों में थोड़ी गंभीरता लाते हुए रवि यह भी कह बैठता- ’’यार, पचास साल एक बड़ा मुकाम होता है. कभी तो ठहर कर देखना चाहिए आदमी को कि वह कहां जा रहा है, कि वह कर क्या रहा है. आखिर लोग भी तो पूछेंगे कि पचास साल हो गये हैं परका, तूने अब तक किया क्या?’’

परका! इस नाम की क्रेडिट अम्मा को जाती है. बाबूजी ने तो बहुत सोच-समझकर मेरा नाम प्रकाश रखा था. लेकिन अम्मा मुझे परकास ही बुलाती. उसमें भी पूरा उच्चारण शायद ही कभी करती. प्रायः बड़े चाव से ’परका’ कहकर ही काम चला लेती. देखा-देखा मेरा पुकारू नाम परका ही हो गया. आज भी सगे संबंधियों, निकट मित्रों के लिए मैं परका ही हूं.
तो मामला यह है कि यार लोग मुझसे यह भी उम्मीद करते हैं कि मैं सोचूं कि अब तक मैंने किया क्या है. हालांकि रवि की बात से यह तो साफ था कि यह सारा कुछ इस भागमभाग की जिंदगी में मस्ती के कुछ पल चुरा लेने के दर्शन के तहत ही किया जा रहा है. फिर भी मेरी उलझन यह है कि इस बहाने कहीं वाकई पचास साल के हिसाब-किताब में न उलझ जाऊं. जहां तक पार्टी-सार्टी देने की बात है, सब जानते हैं कि मेरे पास इन चीजों के लिए न तो पैसा है, न फुरसत है और न शौक. ऐसे में अगर यार लोगों के दबाव में जन्मदिन मनाया भी, तो हजार-दो हजार में निपटा देना मुश्किल नहीं होगा. मेरे लिए सवाल सिर्फ उस खर्चे का नहीं, जिसका बोझ इस पचास साला आयोजन के बहाने मेरे कंधे पर आ सकता है. सवाल मेरे माइंडसेट और टेंपरामेंट का है. दोस्तों और बीबी-बच्चों की इच्छा को देखते हुए छोटा-मोटा आयोजन कर लेना कोई मुश्किल काम नहीं. न इसमें मुझे खास ऐतराज ही है. वैसे भी दफ्तर में लोग मुझे कुशल प्रबंधक के बतौर जानते रहे हैं और ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन मेरे लिए चुटकी भर का काम है.

फिर भी उलझन में हूं सोलह दिसंबर की उस तारीख को लेकर, जब मेरा पचासवां जन्मदिन आयेगा. अब तक यह बात साफ हो चुकी है कि यार लोगों के बीच यह कोई सवाल नहीं कि मैंने पचास साल में क्या किया. यह तो महज इस मस्ती के मौके को थोड़ा दार्शनिक बनाने की गरज से कही गयी बात थी. अगर मैं पहले ही सहजता से मान गया होता तो शायद ऐसे तर्क देने की नौबत भी न आती. लेकिन जब बात आ गयी तो मेरे दिलोदिमाग में अपनी जगह भी बना गयी है. लिहाजा, सोलह दिसंबर को लेकर मेरी उलझन की वजह यह भी हो सकती है कि खुद मुझसे ही मेरा यह सवाल बन चुका हो कि परका! तूने किया क्या?

पचास साल! जिंदगी के पूरे पचास साल! वाकई काफी बड़ा समय होता है यह. पूरी की पूरी दुनिया बदल जाती है. एक आदमी की जिंदगी में बहुत लंबा समय है यह. मानुष जनम लेकर जो कुछ करना था, वह पचास साल में नहीं किया, तो आगे क्या खाक कर पायेंगे? वक्त रहते नहीं किया तो जब शरीर साथ नहीं देगा, उस वक्त क्या कर लेंगे.....? यार लोग ठीक ही कहते हैं. हर किसी को, और मुझे भी, यह सोचना ही चाहिए कि आखिर मैंने किया क्या!

बात बर्थ-डे को लेकर शुरू हुई थी. लिहाजा, बच्चों के जन्मदिन को लेकर अपना रवैया रह-रहकर याद आता है. बड़ी बेटी के पहले जन्मदिन के मौके पर तो सचमुच मेरे अंदर काफी उमंग थी. सारे दोस्तों, संबंधियों को घर बुलाकर, खूब चाव से मनाया था. हालांकि फालतू का खर्चा उस वक्त भी नहीं किया. लेकिन बाद में तो बड़ी बेटी हो, मंझली या फिर सबसे छोटी, जन्मदिन की तारीखें कब आतीं और चली जातीं, कुछ पता ही नहीं चलता. जन्मदिन से पहले कई दिनों से बेटियां पूछा करतीं- ’’पापा इस बार बर्थ-डे मनाना है न?’’ ’’हां बेटा, खूब अच्छे से मनायेंगे.’’ मेरा रटा-रटाया जवाब होता.

पत्नी पूछती तो उसे भी लगभग ऐसा ही जवाब. यह भी कह बैठता कि तुम्हें जिस तरह मनाने का मन हो, वैसा कर लो. लेकिन ऐन मौके पर जरूर कोई न कोई ऐसी व्यस्तता निकल आती कि पत्नी और बेटियों की जुबान खुद ही बंद हो जाती. किलो-आध किलो का कोई केक कहीं से ले आया जाता, कुछ समोसे वगैरह लाकर, अगल-बगल के दो-चार बच्चों को बुला लिया और हो गया हैप्पी बर्थ-डे. कई बार तो केक भी घर पर ही बन जाता. चाहे जैसा भी बने. ज्यादातर मौकों पर मम्मी-पापा की तरफ से कोई गिफ्ट तक नहीं. बहुत हुआ तो बर्ड-डे के नाम पर कोई ड्रेस लाकर उसे ही गिफ्ट बता दिया. कभी गिफ्ट के नाम पर स्कूल बैग ला दिया.

एक बार तो हद हो गयी जब बर्थ-डे गिफ्ट के नाम पर एक सस्ता सा टेलीफोन सेट पकड़ा दिया (क्योंकि घर का टेलीफोन सेट खराब हो गया था और नया लाना जरूरी). पत्नी के बर्थ-डे और हमारे विवाह की वर्षगांठ के मौके भी बनावटी हंसी के दो बोल के सहारे निपट जाते. फिर भी पत्नी व बच्चों न कभी उफ न की. उलाहना नहीं दी. हां, एक बार सबसे छोटी बेटी ने अपने बर्थ-डे की शाम ठगे जाने का एहसास होने पर जिस कातर भाव से सुबकना शुरू किया था, वह क्षण कभी भुलाये नहीं भूलता.

हालांकि उस मौके के लिए भी खुद को माफ करने के लिए मेरे पास पर्याप्त एवं ठोस तर्क हैं. कुछ ही महीनों पहले मेरा एक्सीडेंट हुआ था. फिर तबादला. किराये के नये घर में किसी तरह एडजस्ट होने की जद्दोजहद थी. आर्थिक तंगी और काम की उलझन अलग. इतने पर भी तीन साल की सबसे छोटी बेटी का जन्मदिन मनाया ही जा सकता था. ज्यादा कुछ करना भी नहीं था. एक केक और कुछ नाश्ता भर तो लाना था. लेकिन अपनी ही दुनिया में खोया हुआ मैं, केक लाने के लिए दो किलोमीटर ज्यादा दूरी तक स्कूटर चलाने की जहमत के बजाय पांच-पांच रूपये की चार पेस्ट्री खरीद लाया. सोचा कि इसी से केक का लुक आ जायेगा. बिटिया का दिमाग तो सुबह से ही ठनका हुआ था क्योंकि बैलून-गुब्बारों से कमरा सजाने की कोई गतिविधि उसे नजर नहीं आयी थी. लेकिन जब उसने केक के बजाय पेस्ट्री देखी तो समझ गयी कि धोखा हुआ. सुबक-सुबककर रोने लगी, पछाड़ लेकर मम्मी की गोद में दुबक गयी. मुझे काटो तो खून नहीं. खूब समझाया. पुचकारा. पर एक बार उसके दिमाग में जो बात जमनी थी, जम गयी. अब तो वह बेहद मासूमियत से पूछा करती है- ’’पापा, इस बार तो मेरा बर्थ डे मनायेंगे न?’’ ’’हां बेटा, खूब धूम से मनायेंगे.’’ कहते हुए पिछला दृश्य तैर आता है मेरी आंखों के आगे. मेरी जुबान थरथराने लगती है. हालांकि ऐन मौके पर फिर वही टालमटोल.

यह सिर्फ पैसे की तंगी है या कोई मनहूसियत? समझ नहीं पाता. पैसे की तंगी एक बड़ा कारण तो है लेकिन यही प्रमुख भी नहीं. कभी किसी ने नहीं कहा कि बर्थ-डे मनाने में ज्यादा खर्च करो. बेहद मामूली खर्च में निपट जाता है सब कुछ. तो क्या मनहूसियत है यह? इस शब्द का उपयोग भी ज्यादती लगती है मुझे. दरअसल मुझे लगता है कि इसके पीछे अपना एक अलग किस्म का माइंडसेट, कहें कि मनोवृति ज्यादा जिम्मेवार है. यह मनोवृति मुझे यह कहने का हौसला देती है कि मुझे इन चीजों के लिए न समय है, न पैसा है, न शौक. यानी अगर इन चीजों के लिए पैसा और समय नहीं तो भी इसका कोई मलाल नहीं, क्योंकि इसका शौक भी नहीं. शौक होता तो मलाल भी होता.

हालांकि कोई यह भी कह सकता है कि शौक न होने का कारण भी शायद यही है कि तुम्हारे पास इसके लिए समय और पैसा नहीं.

तो मतलब यह हुआ श्रीमान, कि बच्चों तक के बर्थ-डे को लेकर कोई उमंग न दिखाने वाला आज अपने पचास साल के मौके को किस शौक से मनाये? वह भी तब, जबकि उसे इस सवाल से रू-ब-रू होना पड़े कि तुमने अब तक किया क्या है.

मुझे कुछ अजीब सा लगा यह सवाल. यही क्या कम है कि इन पचास साल में मैंने कभी चोरी नहीं की, आदतन या बेवजह या शौकिया झूठ नहीं बोला, अपने जानते किसी को सताया नहीं, किसी से मारपीट के लायक रहा ही नहीं, खून-कतल तो खैर सपने में भी संभव नहीं था. मुझे यह भी याद नहीं कि किसी से वैसी कोई बेइमानी की हो, जो बतायी जा सके. अपनी हैसियत, चाहे जो भी थोड़ी-बहुत रही हो, का कभी रूआब नहीं झाड़ा. न कभी दिखावा किया, न कोई तड़क-भड़क. महफिल में गये तो इस कदर कि दूसरों को मेरे पहुंचने का खास एहसास न हो. उठे भी इस तरह कि किसी को मलाल न रहे. मतलब बहुत कुछ ऐसा है जो पचास साल की इस उमर तक नहीं किया. क्या कुछ चीजों को न करना खुद में इस बात का जवाब नहीं कि मैंने क्या किया?

मुझे लगा कि मैंने क्या नहीं किया, यह बताना हास्यास्पद है. लोग यह थोड़े ही पूछेंगे कि तुमने क्या नहीं किया. यह एक पोजिटिव सवाल है. इसका निगेटिव जवाब नहीं हो सकता.

उलझन यही कि मैं कैसे बताऊं कि मैंने कभी बेइमानी नहीं की. इसे साबित करने के लिए मेरे पास वैसा कोई प्रमाण नहीं. ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता, जिसे अपनी ईमानदारी की मिसाल बता सकूं. कभी किसी का नोटों से भरा सूटकेस या हीरों का हार गिरा नहीं मिला जिसे लौटाकर अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाऊं. न कभी किसी ने रिश्वत आॅफर की, जिसे ठुकराकर अपनी ईमानदारी के झंडे गाड़ सकूं. यह एहसास ही काफी है कि जो भी कुछ किया, अपने तईं पूरी ईमानदारी बरती. बेइमानी का उसमेें कोई स्कोप नहीं रहा. न ही मैंने उसकी तलाश की. किसी छल-प्रपंच की न तो नीयत रही, न आदत, और न कभी इसकी कोई जरूरत पड़ी. बेहद सरलता से गुजर गया पचास साल का यह लंबा दौर.

लिहाजा, यह समझाना कितना मुश्किल है मेरे लिए कि मैंने अब तक क्या किया. अजीब बात है कि क्या किया, यह बताने के लिए बार-बार सिर्फ यही सब बातें जेहन में आ रही हैं कि क्या नहीं किया. यार लोग हंसेंगे कि हमने यह थोड़े ही पूछा है कि तुमने क्या नहीं किया, हम तो यह जानना चाहते हैं कि तुमने क्या किया.

अप्रैल का महीना आते-आते रूह अफजा और आॅरेंज स्कैच की दो-चार बोतलें लाकर रख दिया करता फ्रीज में. फिर किसी दिन पेप्सी या कोकाकोला की दो या ढाई लीटर की बोतल भी. गरमी के दिन हैं तो आने-जाने वालों के लिए कुछ ठंडा तो होना ही चाहिए घर में. हालांकि दो-चार बोतलों के बाद ही जेब जवाब देने लगती. इसके बाद मेरा एक हिट डायलाॅग होता- ’’यार......., शराब पीने के लिए भी कलेजा चाहिए......एक तो आप शराब पीकर अपना कलेजा फूंकते हो और उससे बढ़कर यह....... कि किस तरह भाई लोग शराब खरीदने, पीने-पिलाने की हिम्मत जुटाते हैं.........? यहां तो कोल्डड्रिंक्स खरीदने में ही हालत खराब....!’’

तो इस तरह गरमी का मौसम चढ़ने के पहले ही फ्रीज में ठंडा रखने का हौसला काफूर हो जाया करता. अब सोचता हूं कि इसे अपनी उपलब्धि में रखूं या नाकामी में, कि इन पचास सालों में न कभी शराब की एक बूंद पी, न किसी को पिलायी. आप कह सकते हैं कि यह कोई उपलब्धि कैसे होगी कि तुमने कभी दारू नहीं पी. अगर इसके बदले तुमने कुछ और किया होता..... मसलन, दूसरे लोग जितने की दारू पी गये, उतने पैसों की एफडी ही कर दी होती बैंक में तो हम मान लेते तो तुमने कुछ किया! यह क्या बहादुरी कि शराब भी नहीं पी और पैसे भी नहीं बचाये?

पचास साल में कभी किसी से चंदा लिया नहीं तो किसी को दिया भी नहीं. बचपन में एक बार सरस्वती पूजा का चंदा करने निकला जरूर था, लेकिन मेरी भूूमिका चंदा मंडली की भीड़ बढ़ाना मात्र थी. बाद में भी कई मौके आये जब मुझसे अपेक्षा की गयी कि मैं चंदा वसूली करूं, लेकिन मैंने नहीं किया. मैं खींस निपोरकर साफ कह डालता कि यार अभी किसी से चंदा लेंगे तो कल किसी को देना भी तो होगा. आज ले लें, कल देंगे कहां से? ऐसी ही मासूमियत के साथ अमूमन हर मौके पर चंदा देने के मामले में अपनी बेचारगी साफ प्रकट कर दी. दूसरे लोग बढ़-चढ़कर चंदा देने की बोली लगाते, खुद को दानवीर कर्ण दिखाते और मैं भींगी बिल्ली की तरह दुबका रहता. झेंपकर कह देता- यार, अभी कहां से दूंगा.
ऐसी ही प्रवृति भिखारियों के प्रति भी रही. ट्रेन में सामने आये भिखमंगों, अपाहिजों को देखकर मुंह फेर लेता. शायद ही कभी किसी को भीख दी हो. और फिर भीख तो क्या, पूजा में आरती की थाली सामने आये तो ज्योति लेते वक्त या पंडित जी को दक्षिणा देने के लिए मुट्ठी शायद ही खुल पाती.

मतलब यह कि कभी दान-पुण्य में कोई खर्च नहीं किया. न कभी कोई तीर्थयात्रा की, न कभी पूजा-पाठ के नाम पर धेला खर्च किया. लोग टोकते तो कहता, ’यार, हमें तो पाप करने की ही फुरसत नहीं, पुण्य क्या करूं.’ किसी को जवाब देता- ’हमने कोई पाप थोड़े ही किया है जो पुण्य करें.’ किसी से कहता- ’पहले थोड़ा पाप कर लेने दो, फिर पुण्य भी कर लूंगा.’

लेकिन हकीकत यह है कि इन पचास वर्षों में न तो कभी अपने जानते कोई पाप कर पाया, और न ही कभी पुण्य की जरूरत समझी. बचपन से ही पूजा-पाठ, धर्म-कर्म से लगाव नहीं रहा. धार्मिक क्रियाकलापों, कर्मकांड वगैरह से चिढ़ रही. यार लोगों को दस-दस दिनों की छुट्टियां लेकर तीर्थयात्रा वगैरह पर जाते देखता तो हैरानी होती कि कहां से इनके पास इतना समय, इतना पैसा आ जाता है इन चीजों के लिए. यहां तो अपना महीने का खर्चा चलाना मुश्किल हो रहा है. कहां से कोई फुटानी करे!

इस तरह, पचास वर्षों में कभी तीर्थयात्रा या घूमने-फिरने के नाम पर कुछ ऐसा नहीं किया जिसका उल्लेख इस सवाल के जवाब में किया जा सके कि मैंने क्या किया. परिवार की संरचना कुछ ऐसी रही कि अपने सामान्य घरेलू खर्चों के सिवा कोई अतिरिक्त खर्च सिर पर नहीं आया. बहन थी नहीं और छोटे भाई सब खुद अपने पैरों पर खड़े हो गये. मां-पिताजी का भी कोई दायित्व नहीं उठाना पड़ा. सिर्फ अपना, अपने बीवी-बच्चों का खर्चा भर उठाता रहा इन पचास वर्षों में. इतने कम बोझ के बाद भी कहीं जमीन-जायदाद नहीं बनायी, बैंक बैलेंस नहीं खड़ा किया. प्राइवेट नौकरी के सहारे अब तक तो कटी, आगे बुढ़ापे का क्या होगा- इस पर कभी नहीं सोचा. न कभी यह सोचा कि तीन-तीन बेटियों का क्या होगा. ऐसे में कोई यही पूछे कि बेटियों के हाथ पीले करने की तैयारी के बतौर तुमने क्या किया तो इसका भी कोई जवाब मुश्किल ही होगा.

बेटियों की शादी कैसे होगी, इस पर तो कभी नहीं सोचा, किंतु अपनी शादी को लेकर जरूर एक सपना था आदर्श प्रस्तुत करने का. न कोई तामझाम हो, न कर्मकांड, न फालतू का खर्चा. किसी विधवा से विवाह तक को तैयार था. पत्नी हो जो जीवनसाथी हो. अपने पैरों पर स्वाभिमान के साथ खड़ी. हालांकि विधवा विवाह तक मामला पहुंचा नहीं. शादी हुई तो लाख कोशिशों के बावजूद थोड़ा तामझाम, थोड़ा कर्मकांड हुआ ही. पत्नी भी कुल मिलाकर धर्मपत्नी ही बनकर रह गयी. इस बात का संतोष जरूर रहा कि दहेज के नाम पर कुछ नहीं लिया. कमोबेश सादगी से निपट गया सारा कुछ. लेकिन सगे-संबंधियों को इसका मलाल रह गया. मेरे आदर्श को किसी तरह काम चला लेने और कहिये तो मनहूसियत के बतौर देखा गया. अपने आदर्श का मतलब किसी को नहीं समझा सका. बाद में, छोटे भाइयों की शादी के वक्त कहा गया कि इस बार तो ढंग से कीजिये शादी. यानी मेरा विवाह ढंग से नहीं हुआ?

इस तरह, मैं आज यह बोलने की स्थिति में भी नहीं कि पचास साल में मैंने जिसे अपने जीवन का आदर्श समझा, उस पर चला. मैं तो किसी को यह तक नहीं समझा पाया कि मेरे आदर्श क्या हैं. मेरे लिए यह समझाना वाकई काफी मुश्किल है कि मैंने अब तक क्या किया. काफी सरल जीवन रहा अपना. कभी किसी को पूजनीय नहीं बनाया. न कभी ऐसा मौका आने दिया कि कोई मेरी पूजा करे. न कभी मेरी कोई लाॅटरी उठी और न कभी कोई बड़ा नुकसान हुआ. एक बार जेब जरूर कटी जिसमें लगभग डेढ़ हजार रूपये चले गये. एक बार ट्रेन में अटैची उठ गयी जिसमें दो-तीन जोड़ी कपड़े थे, कुछ किताबें थीं. ऐसे छोटे नुकसानों के सिवा कभी कोई बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं हुआ.

कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि कोई अप्रत्याशित धन हाथ आ गया हो. लाॅटरी उसी की उठती है जो खरीदता है. मैंने दुर्गा पूजा पर बच्चों को दस-बीस रुपये की एकाध टिकट दिलाने के सिवा कभी इसमें किस्मत नहीं आजमायी, न किसी गड़े धन की कल्पना की. टीवी पर कौन बनेगा करोड़पति आने लगा तो अम्मा बड़े गर्व से कहतीं- ’’मेरा परका चला जाये वहां तो हर सवाल का जवाब दे आये.’’ अम्मा की बात हंस कर टाल जाया करता. यार लोग भी उकसाते रहे. लेकिन केबीसी में किस्मत आजमाने की धुन कभी नहीं चढ़ी. अब लोग पूछेंगे कि अब तक तुमने किया क्या तो भला क्या जवाब दूं मैं?

पचास साल ! एक आदमी देखते-देखते अपने जीवन के पचास साल गुजार देता है. एक सरल और नामालूम आदमी की तरह पचास साल.....! कुछ इस कदर कि कभी किसी का कोई खास भला नहीं कर सके तो कुछ बुरा भी न करे......! पचास साल ऐसे कि बताने, दिखाने लायक कोई बुरा या भला काम ही न किया. ऐसी जिंदगी के क्या मायने? आप ही बताइये!

क्या आप भी पूछना चाहेंगे मुझसे, कि परका ! तूने किया क्या?

Sunday, June 26, 2011

यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा

विष्णु राजगढ़िया
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जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ने वेज बोर्ड को मीडिया पर हमला बताकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है. जबकि मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का भयंकर आर्थिक शोषण है. आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करके भी एक पत्रकार किसी प्रोफेसर, सीए, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस या कंप्यूटर इंजीनियर से आधे या चौथाई वेतन पर क्यों काम करे? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो यह सवाल हर नागरिक और हर मीडियाकर्मी को पूछना चाहिए.
कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए. वरना अखबार प्रबंधकों की लॉबी तरह-तरह से टेसुए बहाकर एक बार फिर पत्रकारों को अल्प-वेतनभोगी और बेचारा बनाकर रखने में सफल होगी.

आज जो अखबार प्रबंधक नये वेज बोर्ड पर आंसू बहा रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रोडक्ट यानी अखबार में जो चीज बिकती है- वह समाचार और विचार है. अन्य किस्म के उत्पादों में कई तरह का कच्चा माल लगता है. लेकिन अखबार का असली कच्चा माल यानी समाचार और विचार वस्तुतः संवाददाताओं और संपादनकर्मियों की कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत और कौशल से ही आता है. इस रूप में पत्रकार न सिर्फ स्वयं कच्चा माल जुटाते या उपलब्ध कराते हैं, बल्कि उसे तराश कर बेचने योग्य भी बनाते हैं.

इस तरह देखें तो अन्य उद्योगों की अपेक्षा अखबार जगत के कर्मियों का काम ज्यादा जटिल होता है और उनके मानसिक-शारीरिक श्रम से कच्चा माल और उत्पाद तैयार होता है. तब उन्हें दूसरे उद्योगों में काम करने वाले उनके स्तर के लोगों के समान वेतन व अन्य सुविधाएं पाने का पूरा हक है. दुखद है कि मीडियाकर्मियों के बड़े हिस्से में इस विषय पर भयंकर उदासीनता का लाभ उठाकर अखबार प्रबंधकों ने भयंकर आर्थिक शोषण का सिलसिला चला रखा है.

जो अखबार 20 साल से महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे वरीय उपसंपादक को 20-25 हजार से ज्यादा के लायक नहीं समझते, उन्हीं अखबारों में किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट, ब्रांड मैनेजर या विज्ञापन प्रबंधक की शुरूआती सैलरी 50 हजार से भी ज्यादा फिक्स हो जाती है. सर्कुलेशन की अंधी होड़ में एजेंटों, हॉकरों और पाठकों के लिए खुले या गुप्त उपहारों और प्रलोभनों के समय इन अखबार प्रबंधकों को आर्थिक बोझ का भय नहीं सताता. चार रुपये के अखबार की कीमत गिराकर दो रुपये कर देने या महज एक रुपये में किलो भर रद्दी छापने या अंग्रेजी के साथ कूड़े की दर पर हिंदी का अखबार पाठकों के घर पहुंचाने में भी अखबार प्रबंधकों को गर्व का ही अनुभव होता है. लेकिन जब कभी पत्रकारों को वाजिब दाम देने की बात आती है, तब इसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले जैसे हास्यास्पद तर्क से दबाने की कोशिश की जाती है.

आज इन मुद्दों पर एक सर्वेक्षण हो तो दिलचस्प आंकड़े सामने आयेंगे-
1. किस-किस मीडिया संस्थान में वर्किंग जर्नलिस्ट वेज बोर्ड लागू है?
2. जहां लागू है, उनमें कितने प्रतिशत मीडियाकर्मियों को वेज बोर्ड का लाभ सचमुच मिल रहा है?
3. मीडिया संस्थानों में प्रबंधन, प्रसार, विज्ञापन जैसे कामों से जुड़े लोगों की तुलना में समाचार या संपादन से जुड़े लोगों के वेतन व काम के घंटों में कितना फर्क है?
4. मजीठिया वेतन आयोग के बारे में कितने मीडियाकर्मी जागरूक हैं और इसे असफल करने की प्रबंधन की कोशिशों का उनके पास क्या जवाब है?
5. जो अखबार मजीठिया वेतन आयोग पर चिल्लपों मचा रहे हैं, वे फालतू की फुटानी में कितना पैसा झोंक देते हैं?

जो लोग यह कह रहे हैं कि पत्रकारों को वाजिब वेतन देने से अखबार बंद हो जायेंगे, वे देश की आखों में धूल झोंककर सस्ती सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. जब कागज-स्याही या पेट्रोल की कीमत बढ़ती है तो अखबार बंद नहीं होते. दाम चार रुपये से घटाकर दो रुपये करने से भी अखबार चलते रहते हैं. हाकरों को टीवी-मोटरसाइकिल बांटने और पाठकों के घरों में मिठाई के डिब्बे, रंग-अबीर-पटाखे पहुंचाने से भी अखबार बंद नहीं होते. प्रतिभा सम्मान कार्यक्रमों और महंगे कलाकारों के रंगारंग नाइट शो से भी कोई अखबार बंद नहीं हुआ. शहर भर में महंगे होर्डिंग लगाने और क्रिकेटरों को खरीदने वाले अखबार भी मजे में चल रहे हैं. तब भला पत्रकारों को वाजिब मजूरी मिलने से अखबार बंद क्यों हों? इससे तो पत्रकारिता के पेशे की चमक बढ़ेगी और अच्छे, प्रतिभावान युवाओं में इसमें आने की ललक बढ़ेगी, जो आ चुके हैं, उन्हें पछताना नहीं होगा. इसलिए यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा. वक्त है पत्रकारिता को वाजिब वेतन वाला पेशा बनाने का. सबको वाजिब हक मिलना चाहिए तो मीडियाकर्मियों को क्यों नहीं?

एक बात और. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए मुख्यतः ऐसे संपादक जिम्मेवार हैं, जो कभी खखसकर अपने प्रबंधन के सामने यह नहीं बोल पाते कि अखबार वस्तुतः समाचार और विचार से ही चलते हैं, अन्य तिकड़मों या फिड़केबाजी से नहीं. प्रबंधन से जुड़े लोग एक बड़ी साजिश के तहत यह माहौल बनाते हैं कि उन्होंने अपने सर्वेक्षणों, उपहारों, मार्केटिंग हथकंडों, ब्रांड कार्यक्रमों वगैरह-वगैरह के जरिये अखबार को बढ़ाया है. संपादक भी बेचारे कृतज्ञ भाव से इस झूठ को स्वीकार करते हुए अपने अधीनस्थों की दुर्दशा पर चुप्पी साध लेते हैं. पत्रकारिता का भला इससे नहीं होने वाला. समय है सच को स्वीकारने और पत्रकारिता को गरिमामय पेशा बनाने का, ताकि इसमें उम्र गुजारने वालों को आखिरकार उस दिन को कोसना न पड़े, जिस दिन उन्होंने इसमें कदम रखा था.

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव पर कांग्रेस के प्रहार का मूलमंत्र

भ्रष्टाचार करो, सहो, लड़ो मत
विष्णु राजगढ़िया
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अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन ने राजनेता-नौकरशाह-कारपोरेट गंठजोड़ की खुली लूट पर गंभीर सवाल उठाये हैं. ये ऐसे सवाल हैं, जो लंबे समय से भारतीय राज-समाज को मथ रहे हैं.
इन बुनियादी सवालों को उठाने की हिम्मत और हैसियत किसी राजनीतिक दल के पास नहीं. इसीलिए ऐसे सवाल अब सिविल सोसाइटी, एनजीओ और बाबा टाइप लोग उठा रहे हैं. कांग्रेस और उसका चाटुकार मीडिया उन सवालों पर चर्चा के बजाय सवाल उठाने वालों पर ही चर्चा केंद्रित करके बचाव का रास्ता ढूंढ़ रहा है.

जो लोग यह कह रहे हैं कि राजनीति के बजाय अन्ना जैसों को समाजसेवा और बाबा जैसों को धरम-करम और योगा में सिमटे रहना चाहिए, उन्हें यह एहसास नहीं कि राजनीतिकों के प्रति भारतीय जनमानस में आम तौर पर और नयी पीढ़ी में खास तौर पर कितनी गहरी अनास्था और घृणा व्याप्त है. विकल्प की तलाश सबको है और कोई विकल्प देने में लेफ्ट से राइट और मध्यमार्गियों तक सब किस कदर अप्रासंगिक हो चुके हैं. रामदेव के पीछे लाखों लोगों के हुजूम और अन्ना हजारे के मंच से राजनेताओं को खदेड़े जाने का मतलब भी यही है.

आज उठे सवालों पर सोचने और शर्मसार होने के बजाय कांग्रेस और उसके चाटुकारों के जवाबी हमलों से यह साबित हुआ है कि भ्रष्टाचार करना जितना आसान है, भ्रष्टाचार से लड़ना उतना ही मुश्किल. कांग्रेस और मीडिया के इस प्रहार का मूलमंत्र है- भ्रष्टाचार करो, भ्रष्टाचार सहो, इससे लड़ो मत.

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कभी शासकों को बहुत प्यारे हुआ करते थे. प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में चार केंद्रीय मंत्रियों ने एयरपोर्ट पर बाबा रामदेव के सामने साष्टांग दंडवत करके इसका एहसास भी कराया. बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म कराने के लिए कांग्रेस ने क्या गुपचुप समझौता किया, यह एक अलग अध्याय है. लेकिन जब रामदेव ने काला धन और भ्रष्टाचार पर तीन दिनों के तथाकथित तप के नाम पर जनजागरण की जिद नहीं छोड़ी तो कांग्रेस सरकार और उसके मीडिया ने बाबा रामदेव की जो दुर्गति की, वो सबके लिए सबक है.

रामदेव की संस्था ने अरबों की संपत्ति बनायी. अन्ना टीम के सदस्य एडवोकेट शांति भूषण ने भी करोड़ों की जायदाद जुटायी. यह उन्होंने एक दिन में या आज नहीं किया. लेकिन इस पर सवाल तब तक नहीं उठे, जब तक कि ये लोग अपना संपत्ति-साम्राज्य बनाने में जुटे रहे. ये इसी धंधे में जुटे रहते तब भी इन पर सवाल नहीं उठते. इन पर सवाल तब उठे, जब इन्होंने भ्रष्टाचार, काला धन और सत्ता-शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए असुविधाजनक सवालों पर नागरिकों को सचेत और एकजुट करना शुरू किया.

अगर अन्ना-बाबा का आंदोलन नहीं होता, तो रामदेव को अपने ट्रस्ट का खजाना भरने की छूट थी. उनके सहयोगी बालकृष्ण को तथाकथित फरजी पासपोर्ट का उपयोग करने से भी कोई नहीं रोक रहा था. शांतिभूषण भी अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार को स्वतंत्र थे. इन सबको अचानक सवालों के घेरे में लाकर शासक वर्ग ने साफ संदेश दिया है- हर कोई अपनी औकात में रहते हुए भ्रष्टाचार की मूल धारा में इत्मिनान के साथ गोते लगाता रहे. जिस किसी ने इस मूल धारा के विपरित जाने या इसमें बहते हुए इसके विपरित धारा बहाने की कोशिश की, उसकी खैर नहीं.

कोई आश्चर्य नहीं यदि किरण बेदी से लेकर अन्ना टीम के अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया जैसे लोगों को भी ठिकाने लगाने के लिए जल्द ही कोई शिगूफे छोड़ दिये जायें. कांग्रेस और मीडिया के प्रहार का साफ संदेश है कि जो कोई भी ऐसे आंदोलनों में आगे आयेगा, उन्हें उनके ही इतिहास के पन्नों में धकेल दिया जायेगा.

जो लोग अन्ना और रामदेव के आंदोलन की तथाकथित असफलता से खुश हैं, उन्हें मालूम होना चाहिये कि यह इस देश में गांधीवादी सत्याग्रही आंदोलनों की ताबूत में आखिरी कील साबित होगी. इसके बाद का रास्ता सिर्फ व्यापक जनविद्रोह, अराजकता या हिंसक संघर्षों की ओर ही ले जायेगा.

प्रसंगवश, हताशा में रामदेव द्वारा शास्त्र के साथ शस्त्र का भी प्रशिक्षण देने के बयान पर उठा बवाल भी कम दिलचस्प नहीं. रामदेव के इस बयान को उसके प्रसंग से काटकर हाय-तौबा के अंदाज में पेश करने में चाटुकार मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी. एक दिग्गज चाटुकार ने तो बिहार की जातिवादी निजी सेनाओं के अनुभवों और इतिहास से जोड़कर लंबा-चौड़ा मूर्खतापूर्ण विश्लेषण लिख मारा, जिसे एक राष्ट्रीय दैनिक ने संपादकीय पेज की शोभा बनाया.

जबकि सबको मालूम है कि बाबा रामदेव भारतीय राज-व्यवस्था के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष छेड़ने वाली कोई सेना बनाने की बात नहीं कर रहे थे. वह तो बस दिल बहलाने के लिए और पूरी सदाशयता के साथ ऐसे नौजवानों को तैयार करने की बात कर रहे थे, जो किसी को पीटें नहीं तो किसी से पिटें भी नहीं. उनके सपनों की इस सेना का हथियार उसके मनोबल और योग से बनी देह के सिवाय शायद ही कुछ हो.

लेकिन इस पर मची हायतौबा के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने साक्षात लौहपुरूष की तरह घोषणा कर दी कि रामदेव ने ऐसा कुछ किया तो उससे हम फौरन निपटेंगे. ऐसी गर्वोक्ति करते वक्त चिदंबरम यह भूल गये थे कि भारतीय राजव्यस्था को उखाड़ फेंकने के नाम पर ऐसी हथियारबंद सेनाएं पूरे इत्मिनान के साथ दंतेवाड़ा से पलामू तक अपना माओवादी साम्राज्य चला रही हैं. उन इलाकों में घुसने और उनसे दो-दो हाथ आजमाने की कोई योजना, हैसियत या इच्छाशक्ति न तो केंद्र के पास है और न ही संबंधित राज्यों के पास.

इससे यह भी साबित हुआ कि अगर आप वाकई कोई हथियारबंद सेना बनाकर बगावत पर उतरे हों, तो शासन को भीगी बिल्ली की तरह बैठे रहने में कोई शर्म नहीं. लेकिन अगर आप आत्मरक्षार्थ कोई सत्याग्रही सेना की बात भी करें तो चिदंबरम और उनके कलमबंद सैनिक आप पर टूट प़ड़ेंगे. ठीक उसी तरह, जैसे आप भ्रष्टाचार करें, भ्रष्टाचार सहें तो आपकी वाह-वाह, इससे लड़ें तो आप ही निशाने पर होंगे.

अन्ना और रामदेव के आंदोलनों का हश्र चाहे जो हो, इस बहाने कई बुनियादी सवालों ने भारतीय जनमानस में गहरी पैठ तो जरूर जमा ली है. आम तौर पर राजनीति को गंदी चीज समझकर इससे दूर रहने को अभ्यस्त जनमानस के बड़े हिस्से खासकर नौजवानों ने गैर-राजनीतिक तरीके से ही सही, राजनीति के कुछ गूढ़ मंत्र भी समझ लिये हैं. इससे शायद अब भारतीय राजनेता-नौकरशाह-कारपोरेट गठजोड़ को अपनी मनमानी को पहले के तरीकों से जारी रखना आसान नहीं होगा. उन्हें शोषण के और बेशक दमन के भी नये-नये तरीके अपनाने होंगे. ठीक उसी तरह, जैसे जनता भी लड़ने के नये-नये तरीके सीख रही है.

कौन जाने वर्ष 2011 को एक बड़े सबक के ऐतिहासिक दौर के बतौर याद किया जाये. कम-से-कम गांधीवादी सत्याग्राही आंदोलनों की सीमा उजागर करने के लिए तो अवश्य ही.

Friday, August 20, 2010

‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?

विष्णु राजगढ़िया
सूचना कानून ने हर नागरिक को सांसद और विधायक से ज्‍यादा ताकत दी है : जिन सवालों के उत्‍तर विधानसभा में विधायकों को नहीं मिलते उसे आम नागरिक आरटीआई से पा लेता है : लोकसभा के मौजूदा सत्र में दस अगस्त को दिलचस्प वाकया हुआ। खेल मंत्री एमएस गिल कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रहे थे। इसी दौरान उन्होंने कह डाला कि सांसद चाहें तो सूचना कानून के सहारे ऐसे मामलों के दस्तावेज हासिल कर सकते हैं। इस जवाब ने मानो आग में घी का काम किया। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नाराज होकर पूछ डाला- ‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई? 'लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था' में उपस्थित जनप्रतिनिधियों को किसी भी मामूली भारतीय की तरह सूचना मांगने की सलाह पर ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। लिहाजा कोई सांसद इस सलाह पर शायद ही अमल करे। लेकिन अनुभव बताते हैं कि सूचना कानून के सहारे कोई भी सामान्य नागरिक कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार से जुड़ी ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां आसानी से निकाल सकता है। ऐसी जानकारियां किसी सांसद या विधायक को संसद या विधानसभा में मिलना काफी मुश्किल और शायद असंभव है।

आखिर मामला क्या है? सूचना कानून में साफ लिख दिया गया है कि जिस सूचना के लिए संसद या विधानसभा को इनकार नहीं किया जा सकता, उसके लिए किसी नागरिक को भी इनकार नहीं किया जायेगा। स्पष्ट है कि आज कोई भी नागरिक हर वैसी सूचना मांग सकता है जो किसी सांसद या विधायक को मिल सकती है। दूसरी ओर, अब तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं बना है कि संसद या विधानसभा में हर ऐसी सूचना मिल सकती है, जो सूचना कानून के जरिये आम नागरिक को प्राप्त है। इसके कारण आज आम नागरिक हमारे जनप्रतिनिधियों की अपेक्षा ज्यादा धारदार तरीके से शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने योग्य दस्तावेजी सबूत हासिल कर रहे हैं।

संसद और विधानसभाओं में सवाल पूछने और जवाब देने के तरीके को देखें तो सूचना कानून से इसका फर्क पता चलता है। आम तौर पर लिखित प्रश्नों में जनप्रतिनिधि को अपनी ओर से कोई विशिष्ट सूचना पेश करते हुए यह पूछना होता है कि यह सच है अथवा नहीं। इसके लिए जनप्रतिनिधि के पास ठोस प्रारंभिक सूचना होना जरूरी होता है। क्या यह सच है, अगर हां तो क्यों शैली में पूछे गये इन प्रश्नों में अगर आपके पास पहले से पर्याप्त सूचना नहीं तो जवाब भी ठन-ठन गोपाल होने की पूरी गुंजाइश रहती है।

इसी तरह, सदन में आये प्रश्नों के जवाबों की भी खास प्रकृति होती है। नौकरशाहों द्वारा तैयार जवाबों के आधार पर सदन में मंत्री अपना पक्ष रखता है। इसमें सवाल उठाने वाले जनप्रतिनिधि को सारे संबंधित दस्तावेज नहीं दिये जाते बल्कि उस पर सरकार का पक्ष रखा जाता है। इसमें सवाल उठाने वाले को दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर जवाबतलब करने का समुचित अवसर प्रायः नहीं मिल पाता। दूसरी ओर, सूचना कानून ने प्रश्नोत्तर की इन सीमाओं से आगे जाकर संबंधित मामले के सारे दस्तावेज हासिल करने की जबरदस्त ताकत दी है। इसमें कोई सवाल उठाने के लिए नागरिक के पास अपनी प्रारंभिक एवं ठोस सूचना की जरूरत नहीं। वह एक साधारण पंक्ति लिखकर कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी फाइल मांग सकता है। इस तरह फाइल लेने का कोई सामान्य प्रावधान संसद या विधानसभा में नहीं है।

तब क्या यह कहना अतिश्योक्ति है कि सूचना कानून ने आज हर नागरिक को सांसद और विधायक से भी ज्यादा ताकत दी है? संसद और विधानसभा के सत्रों को देखें तो यह बात और स्पष्ट हो सकेगी। जनता ने अपने जनप्रतिनिधि चुनकर भेजे। उन्हें नागरिकों की ओर से सवाल पूछने का दायित्व सौंपा गया। लेकिन साल में महज बीस से पचास दिन चलने वाले सदन की प्रक्रिया प्रायः विचारहीन शोरशराबे या औपचारिकताओं में डूबी रहती है। प्रश्नोत्तर काल का ज्यादातर समय हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। महालेखाकर की रपटों, बजटों, योजनाओं, कानूनी संशोधनों या विधेयकों को कई बार पढ़ा तक नहीं जाता, बहस तो दूर की बात। जनप्रतिनिधियों के लिए सवाल पूछने की गुंजाइश अत्यंत सीमित रह जाती है। कुछ सवाल पूछे भी गये तो जवाब नदारद। जवाब मिला भी तो कार्रवाई खुदा जाने।

कोई विधायक-सांसद सवाल पूछना चाहे तो कोई जरूरी नहीं कि वह स्वीकृत हो जाये। हुआ भी तो जरूरी नहीं कि सदन में उस पर चर्चा हो। हुई भी तो जरूरी नहीं कि जवाब मिले। एक बार मामला खत्म, तो फिर अगले सत्र का इंतजार। एक दिन में कोई सांसद या विधायक कितने सवाल पूछ सकेगा, इसकी भी सीमा है। उन्हें यह कहकर टाला जा सकता है कि विभाग से सूचना की प्रतीक्षा की जा रही है। ऐसे हजारों उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जिनमें सांसद, विधायक के सवालों का जवाब बरसों तक नहीं मिला।

इस तरह, सदन में पूर्ण विफल जनप्रतिनिधि अपने कीमती समय का बड़ा हिस्सा समितियों की बैठकों और टूर-दौरों में, उद्घाटन और अभिनंदनों में, विवाह और शोक समारोहों की शोभा बनने में गंवा देता है। इससे भी कुछ समय निकला तो दलीय गुटबंदी। दूसरी ओर, सूचना कानून में एक माह की समय सीमा लागू है। नागरिकों के सवालों को स्थगित नहीं किया जा सकता। जवाब देना होता है। नहीं दिया तो सूचना आयोग दिला देगा। सूचना मांगने का कोई मौसम नहीं। यही कारण है कि आज कोई सवाल उठाने, जवाब मांगने के लिए नागरिक किसी जनप्रतिनिधि का मोहताज नहीं। वह हर चीज का हिसाब खुद मांगने, जांच करने को स्वतंत्र है। साठ साल में संसद और विधानसभा में जितने सवाल पूछे गये, उससे ज्यादा सूचना पांच साल में नागरिकों ने खुद ही हासिल कर ली है।

मजेदार बात यह है कि आज ऐसे सांसदों, विधायकों, पूर्व मंत्रियों की बड़ी संख्या है जो सूचना कानून का शानदार उपयोग कर रहे हैं। पूर्व सांसद रमेंद्र कुमार का स्पष्ट मानना है कि एक नागरिक के बतौर उन्हें यह कानून ज्यादा ताकत देता है। विधायक विनोद सिंह के अनुसार जो सूचना एक विधायक के बतौर उन्हें झारखंड विधानसभा में नहीं मिल सकी, वही सूचना उन्होंने एक नागरिक के तौर पर सूचना कानून के जरिए आसानी से हासिल कर ली। एक आईपीएस के खिलाफ तत्कालीन एडीजीपी वीडी राम की जांच रिपोर्ट का मामला काफी चर्चित है। माले के चर्चित विधायक महेंद्र सिंह द्वारा लगाये गये गंभीर आरोपों के बाद यह जांच गठित हुई थी। लेकिन स्पीकर के आदेश के बावजूद विधानसभा में यह रिपोर्ट पेश नहीं की गयी।

जिस विधानसभा के कारण वह जांच हुई, उसी विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। महेंद्र सिंह ने इसे बार-बार सदन में उठाया। उनकी हत्या के बाद उनके पुत्र विधायक विनोद सिंह ने भी सदन में रिपोर्ट पेश करने की मांग की। लेकिन विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। इसी बीच विनोद सिंह ने एक नागरिक के बतौर सूचना कानून के सहारे वही रिपोर्ट आसानी से हासिल कर ली। एक और दिलचस्प उदाहरण। वर्ष 2006 में झारखड विधानसभा में तेजतर्रार विधायक बंधु तिर्की ने विकास योजना की अरबों की राशि बैंकों में जमा रखने पर सवाल पूछे। सदन में जवाब मिला कि सूचना एकत्र की जा रही है। छह महीने बाद फिर यही जवाब। विधायक को कोई सूचना नहीं मिली। यह देखकर इन पंक्तियों के लेखक ने आरटीआई आवेदन देकर सरकार से यही सूचना मांग डाली। देखते-ही-देखते हजारों पृष्ठों की सूचना मिल गयी।

किसी भी विषय पर सवाल उठाने के लिए संबंधित आधिकारिक दस्तावेजों का अध्ययन आवश्यक है। सूचना कानून ने हर नागरिक को यह ताकत दी है। संसद और विधानसभा के प्रश्नोत्तर की प्रकृति भिन्न है। जनप्रतिनिधियों को अगर आधिकारिक दस्तावेजों का पूर्व अध्ययन करने का अवसर मिले तो उनके द्वारा उठाये गये सवाल ज्यादा धारदार हो सकते हैं। इसलिए समय आ गया है, जब सदन में सवालों और उन पर सरकार के जवाब को ज्यादा सार्थक और परिणामदायक बनाने के लिए सांसदों और विधायकों को संबंधित दस्तावेज कुछ दिनों पहले हासिल करने का अवसर मिले। अभी उन्हें सदन में या एक दिन पहले सिर्फ बेहद सीमित जवाब पकड़ा दिये जाते हैं। उन पर पूरक प्रश्नों के जरिये बहुत कुछ निकालना कई बार संभव नहीं हो पाता।

इसलिए आज सवाल यह नहीं है कि संसद से भी ऊपर आरटीआई है अथवा नहीं। सवाल सिर्फ इतना है कि इस कानून ने पारदर्शिता और जवाबदेही के जो नये आयाम खोले हैं, उनका सदुपयोग हमारे जनप्रतिनिधि किस प्रकार से करना चाहते हैं। अगर कोई जनप्रतिनिधि सदन के लिए अपने सवाल बनाने में आरटीआई का उपयोग करे तो आसानी से समझ लेगा कि ‘‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?‘‘
नई दुनिया. 16-08-2010 को प्रकाशित

Sunday, December 27, 2009


रणेन्द्र का उपन्यास- ग्लोबल गांव के देवता
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विष्णु राजगढ़िया
सिंगूर, लालगढ़, सलवा जुड़ुम और आपरेशन ग्रीन हंट के इस दौर में कवि, विचारक एवं कथाकार रणेन्द्र का उपन्यास आया है- ग्लोबल गांव के देवता
यह सामयिक जटिलताओं और वर्तमान चुनौतियों व बहसों की साहित्यिक प्रस्तुति भर नहीं है। इसमें मानव समाज की उत्पत्ति से विकासक्रम में बेहतरी की अदम्य तलाश एवं निरंतर कठिन श्रम के जरिये विशिष्ट एवं युगांतकारी योगदान करने वाले समुदायों एवं खासकर जनजातियों को कालांतर में निरंतर हाशिये पर धकेल दिये जाने की ऐतिहासिक समझ भी मिलती है।
इस रूप में देखें तो इसमें अतीत की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर वर्तमान की चुनौतियों को समझने की कोशिश की गयी है। साथ ही यह पूंजी की पोषक सत्ता द्वारा जनजातियों को निरंतर वंचित करने के षड़यंत्रों को ग्लोबल फलक से उठाकर गांव के स्तर तक लाते हैं। इस तरह यह अतीत के साथ वर्तमान और ग्लोबल के साथ लोकल के सहज सामंजन का खूबसूरत उदाहरण है।
रणेन्द्र का यह उपन्यास आधुनिक भारत में जनजातियों के लिए उत्पन्न अस्तित्व-मात्र के संकट के साथ ही जनप्रतिरोध की विविध धाराओं के उदय एवं उनकी जटिलताओं की सांकेतिक रूपों में महत्वपूर्ण प्रस्तुति करता है। ग्लोबल देवताओं को खनिज की भूख है और उनकी भूख मिटाने के लिए जनजातियों को जमीन से बेदखल करना जरूरी है। भारत सरकार को भी जनजातियों से ज्यादा जरूरी भेड़िये को बचाना है।
आदिवासियों के विस्थापन और इसके खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध से लेकर हिंसक प्रतिरोध तक की स्थितियों को सामने लाने के लिए रणेन्द्र ने असुर जनजाति को केंद्र में रखा है। आग और धातु की खोज करने वाली] धातु को पिघलाकर उसे आकार देने वाली कारीगर असुर जाति को मानव सभ्यता के विकासक्रम में हाशिये पर धकेल दिये जाने और अब अंततः पूरी तरह विस्थापित करके अस्तित्व ही मिटा डालने की साजिश इस उपन्यास में सामने आती है।

उपन्यासकार बाहर से गये एक संवेदनशील युवा उत्साही स्कूली शिक्षक के बतौर इस जनजाति के सुख-दुख और जीवन-संघर्षों में खुद को स्वाभाविक तौर पर हर पल शामिल पाता है। इस दौरान वह असुर जनजाति के संबंध में कई मिथकों एवं गलत धारणाओं की असलियत को समझता है, वहीं ऐतिहासिक कालक्रम में इस जनजाति के खिलाफ साजिशों की ऐतिहासिक समझ भी हासिल करता है। दरअसल यही समझ उसे इन संघर्षों में शरीक होने की प्रेरणा देता है।
उसे लालचन असुर के रूप में खूब गोरा-चिट्टा आदमी मिलता है जबकि उसकी धारणा में असुर लोग खूब लंबे-चैड़े, काले-कलूटे भयानक लोग थे। छरहरी-सलोनी पियुन एतवारी भी असुर है, यह जानकर भी युवा शिक्षक चकित है।
जल्द ही असुर लोगों के ज्ञान व समझ को लेकर गलत धारणाएं भी मिट जाती हैं। समुदाय के सुख-दुख में भागीदार उपन्यासकार जहां धीरे-धीरे असुर जनजाति के खिलाफ सदियों से चली आ रही साजिशों को समझता जाता है, वहीं इलाके में बाक्साइड के रूप में मौजूद कीमती खनिज की लूटखसोट के लिए देशी-विदेशी पूंजी के हथकंडों और हमलों के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनता है। अहिंसक, शांतिपूर्ण याचनाएं अनसुनी कर दी जाती है और शिवदास बाबा का कराया समझौता लागू होने के बजाय आंदोलन को बिखरने का षड़यंत्र ही साबित होता है।
असुरों को उजाड़ने की साजिश के खिलाफ रुमझुम असुर का प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिखता है- भेड़िया अभयारण्य से कीमती भेड़िये जरूर बच जायेंगे श्रीमान्, किंतु हमारी असुर जाति नष्ट हो जायेगी....।
लेकिन ऐसे पत्र आंदोलनकारियों पर पुलिस हमले नहीं रोक पाते और छह मृतकों को पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली की संज्ञा मिलती है। बिना पुनर्वास और बिना मुआवजे के 37 गांवों में सदियों से रहने वाले हजारो परिवार आखिर कहां जायें] इसका जवाब किसी के पास नहीं। उल्टे, ऐसे सवाल उठाने वालों के लहू से धरती लाल हो जाती है और यूनिवर्सिटी हास्टल से सुनील असुर के रूप में एक नयी शक्ति सामने आती है। आंदोलन की विविध धाराओं की जटिलताओं और सवालों को सामने लाकर उपन्यास ढेर सारे सवाल छोड़ जाता है।
उपन्यासकार के सामने निश्चय ही यह चुनौती रही होगी कि पाठकों को असुर जनजाति के विकासक्रम की जटिलताओं के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों की प्रस्तुति करके हुए मानवशाष्त्रीय एवं ऐतिहासिक पहलुओं का विवरण कहीं इसे बोझिल नहीं बना दे। इसके साथ ही, विभिन्न रीति-रिवाजों एवं अंधविश्वासों का विवरण भी उपन्यास को जनजातीय समाजशास्त्र की पुस्तक में बदल सकता था।
ऐसे खतरे उठाते हुए रणेन्द्र ने कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर संतुलन बनाते हुए उपन्यास को रोचक बनाये रखा। ऐसे एक व्यापक फलक को लेकर चलते हुए उपन्यासकार ने ललिता जैसी पात्र के भावुक प्रसंगों के लिए भी गुंजाइश निकालकर अपनी लेखन क्षमता एवं कल्पनाशीलता का परिचय दिया है।

इस उपन्यास के लिए भाई रणेन्द्र को बधाई। आप भी उन्हें 094313-91171 नंबर पर बधाई दे सकते हैं।

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उपन्यास-परिचय
रणेन्द्र
ग्लोबल गांव के देवता
भारतीय ज्ञानपीठ
पृष्ठ- 100
वर्ष- 2009
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