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Tuesday, January 17, 2012

जब पगडंडियां बनीं महामार्ग

-----------पथ के दावेदार (प्रभात खबर के 20 वर्ष पूरा होने की कहानी, साथियों की जुबानी) - विष्णु राजगढ़िया - अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्से में बसे रांची जैसे छोटे से शहर से जब एक सर्वथा नये प्रकाशन संस्थान ने वर्ष 1984 में दैनिक प्रभात खबर का प्रकाशन शुरू किया था, तो किसने सोचा होगा कि यह नयी सदी में हिन्दी पत्रकारिता की मुख्य धारा का अभिन्न अंग होगा. इस रोमांचक यात्रा की स्मृतियां वस्तुत रघुवीर सहाय की महज तीन पंक्तियों की कविता से बात शुरू करने को प्रेरित करती है- नीचे घास ऊपर आकाश ऐसा ही होता यदि जीवन में विश्वास वर्ष 1984 के स्वाधीनता दिवस से प्रारंभ इस यात्रा के आरंभिक पांच वर्षों ने एक तरह से इसी मिथक को आधार प्रदान किया कि हिन्दी पत्रकारिता में तथा कथित राष्ट्रीय अखबार ही मुख्यधारा हैं और छोटे शहरों से छोटी पूंजी वाले अखबारों की अपनी आकांक्षाएं भी छोटी-ही रखनी चाहिए. 1989 के अक्तूबर माह में नये, वर्तमान प्रबंधन, ने जब इस मिथक को तोड़ने की चुनौती कबूल की तो विरासत में एक अल्प-प्रसारित, मृतप्राय दैनिक का बैनर मिला, अधिसंरचना के नाम पर छोटा-सा दफ्तर एवं अप्रासंगिक होती तकनीक मिली और पूंजी के नाम पर स्वयं जीवनक्षम होने की चुनौती. इन प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रारंभ यात्रा ने यदि छोटानागपुर की पठारी पगडंडियों को अपने राजमार्ग में बदल डाला तो यह उसी विश्वास का प्रतिफ़ल है जो नीचे अपने लिए घास की तलाश करता है तो ऊपर आकाश की. वह दौर भारतीय समाज और राजनीति में गहराती बेचैनी और तीव्र परिवर्तनों का दौर था जब भारतीय जनमानस तीसरी धारा के तथाकथित समाजवादी विकल्पों को आजमाने और ठुकराने के प्रयोग कर रहा था और जिसने अंतत थक-हारकर वापस कांग्रेस को ही बागडोर थमा दी थी. ठीक इसी दौर में क्षेत्रीय जनाकांक्षाभी तीव्र कुलांचे भर रही थीं और अलग झारखंड राज्य के पूर्ववर्ती आंदोलन का एक ऐसा जटिलताओं से भरा स्वरूप उभरकर सामने आ चुका था, जिसमें राज्यतंत्र से सुलह-समझौते की पेशकश थी तो आर्थि‍क नाकेबंदी और झारखंड बंद के रास्ते भी, नेतृत्व के प्रति अविश्वास था तो उसे साथ लेने की विवशता भी. उस वक्त के स्वघोषित झारंखड के हरे रंग पर लाल और भगवे रंगों के अलग-अलग प्रभावों से यह जटिलता और गहरी होती जा रही थी. प्रभात खबर की विकास-यात्रा के साथ वक्त के उस दौर का यह संक्षिप्त विवरण दरअसल वह पृष्ठभूमि है जिसने तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों के मिथक के समानांतर, आंचलिक पत्रकारिता की अन्यथा तुच्छ धारा को कालांतर में मुख्यधारा में बदल डाला. आज अगर झारखंड की राजधानी रांची और दो प्रमुख औद्योगिक केंद्रों जमशेदपुर एवं धनबाद के साथ देवघर व दो पड़ोसी राज्यों बिहार और बंगाल की राजधानियों- पटना और कोलकाता से प्रभात खबर अपने सफ़ल संस्करणों का शानदार नेटवर्क तैयार करने का गौरव रखता है; तो कहना नहीं होगा कि हिन्दी पत्रकारिता अब राष्ट्रीय अखबार की मुख्य धारा के मिथक से पूरी तरह स्वतंत्र हो चुकी है. नये दौर के सफ़र की शुरूआत के साथ ही प्रभात खबर ने देश के जनमानस की उक्त बेचैनी और स्वायत्तता की क्षेत्रीय जनाकांक्षा का वाहक बनने का रिश्ता कबूल किया और नयी शताब्दी जहां भारत के मानचित्र पर झारखंड के रूप में एक नये राज्य के उदय का गवाह बनी, वहीं इसके हमसफ़र के बतौर प्रभात खबर को भी हिन्दी पत्रकारिता के बटवृक्ष की फ़लती-फ़ूलती शाखाओं के बतौर देखा गया. इस विकास क्रम ने नये झारखंड राज्य के स्वाभाविक और नसैर्गिक तौर पर अपने अखबार के बतौर प्रभात खबर की पहचान करायी और तमाम सर्वेक्षणों के आंकड़े भी झारखंड के सर्वाधिक प्रसारित दैनिक के बतौर प्रभात खबर के नाम की गवाही देने लगे. झारखंड ही नहीं, विशेष परिशिष्ट की इस श्रृंखला में बिहार पर निकाला गया अंक भी विभाजन के उपरांत बिहार की बेचैनी और सवालों को संकलित करनेवाले महत्वपूर्ण कार्य के बतौर देखा गया. झारखंड आंदोलन से प्रभात खबर का गहरा रिश्ता रहा है. अलग राज्य बनने के बाद यह भी कहा गया कि इस आंदोलन को इस अखबार ने जीवित रखा. इसलिए 15 नवंबर 2000 को अलग राज्य बनने के अवसर पर प्रभात खबर ने 86 पेज का विशेष परिशिष्ट निकाला. उस परिशिष्ट का मूल मर्म था कि झारखंड के पीछे एक सार्थक जीवन-दृष्टि, संघर्ष, परंपरा और रचनात्मकता है, और इसी नींव पर झारखंड का भविष्य गढ़ा जा सकता है. बाद में उस परिशिष्ट को राजकमल प्रकाशन ने झारखंड दिसुम मुक्तिगाथा और सृजन के सपने नामक पुस्तक में संयोजित करके यादगार बना दिया. उस दौर में झारखंड के विकास के रास्ते को लेकर चलायी गयी गहन विचार मंथन की प्रक्रिया भी प्रभात खबर की प्रमुख उपलब्धियों में से एक है. वह क्या है जो प्रभात खबर को अखबारों की भीड़ से अलग, एक स्वतंत्र पहचान देता है? क्या इसका रहस्य अपने नये पाठकवर्ग का विस्तार उन कल-कारखानों और सुदूर आदि‍वासी इलाकों के मेहनतकश लोगों के बीच तलाशने की उन दुरूह कोशिशों में छुपा है, जिनकी शैक्षणिक और आर्थि‍क हैसियत के भ्रम और असलियत ने अब तक तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों को उनसे सर्वथा दूर रखा था? तपकरा और ठेठईटांगर के किसी सुदूर आदि‍वासी टोले की नुक्कड़ पर चाय-पकौड़ी की किसी दुकान में यदि प्रभात खबर की एकमात्र प्रति दिख पड़ती है, तो उसे हमने कभी प्रसार की संख्या के आंकड़ों के बतौर नहीं बल्कि उस एकमात्र प्रति का अक्षर-अक्षर तक बांच जाने वाले उन सैकड़ों नागरिकों की अलौकिक शक्ति के बतौर देखा है, जो अंतत: राज और समाज का स्वरूप गढ़ती हैं. हमने इन नामालूम लोगों के साथ जीवंत रिश्ता गढ़ने की हर संभव कोशिशों को साकार किया और पत्रकारिता में लेखन से पाठन तक मौजूद तमाम अभि‍जात्य मिथकों को धता बताते हुए उन नायकों की तलाश की जो भविष्य का भारत और झारखंड गढ़ रहे थे. इस प्रक्रिया ने जहां हमें सुदूर ग्रामीण इलाकों और औद्योगिक बस्तियों में नये, नौजवान, स्फ़ूर्तिपूर्ण संवाददाताओं और लेखकों का शानदार नेटवर्क तैयार करने में आशातीत सफ़लता दिलायी, वहीं प्रतिबद्ध पाठकों का वह विशाल समूह भी, जो पत्रकारिता से सरोकारों के जुड़ाव का अर्थ समझता-बूझता है. कोई अखबार सरकार से जुड़ा है या सरोकार से, पाठकों में इसकी समझ के हमारे भरोसे ने लगातार सकारात्मक नतीजे दिलाये हैं. इस तरह क्षेत्रीय जनाकांक्षाओं और इनके वाहकों की तमाम धाराओं ने जहां प्रभात खबर में अभिव्यक्ति पायी, वहीं स्थानीय बुद्धिजीवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, विद्वानों और विशेषज्ञों की प्रतिभा ने भी इसके पन्नों की शोभा बढ़ायी. लेकिन प्रभात खबर महज अपने पन्नों पर सांस्कृतिक, बौद्धिक सामग्री की प्रस्तुति की भूमिका तक सीमित नहीं रहा बल्कि गतिविधि-केंद्रों की अनुपस्थिति को देखते हुए इसने अपने लिए एक आयोजक की भूमिका भी कबूल की. इस भूमिका के तहत व्याख्यानमाला की श्रृंखला में रांची से लेकर पटना, धनबाद, जमशेदपुर और कोलकाता स्थित अपने प्रकाशन केंद्रों में देश के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों का पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद कराया. व्याख्यानमाला के वक्ताओं में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, ख्यातिलब्ध पत्रकार प्रभाष जोशी, पूर्व नौकरशाह और पूर्व राज्यपाल प्रभात कुमार जैसे व्यक्तित्व थे तो विनोद मिश्र जैसे नक्सलवादी भी. अमेरिका में लेखन और अध्यापन से जुड़े बिहार के नौजवान अमिताभ कुमार से लेकर चुनाव विश्‍लेषक योगेंद्र यादव और प्रसिद्ध समालोचक डॉ नामवर सिंह जैसे व्यक्तित्वों द्वारा प्रभात खबर व्याख्यानमाला के तहत बोले गये एक-एक शब्द हमारी अनमोल थाती हैं. आयोजक की इस भूमिका के अगले पड़ाव में हमने खलनायक मोगैंबो के बतौर कुख्यात अमरीश पुरी को कनुप्रिया की प्रस्तुति के लिए आमंत्रित करके उनके उत्कृष्ठ रंगकर्मी व्यक्तित्व से भी अपने पाठकों का परिचय कराया. मुद्दों के बतौर आमजन की पीड़ा से लेकर राष्ट्र और झारखंड के नवनिर्माण से जुड़े सवालों को तलाशने की निरंतर कोशिशों ने हमें इस इलाके में पत्रकारिता की पूर्वतर्ती धाराओं के विपरित नित नये प्रयोगों के आयाम दिये. यह प्रक्रिया पाठकों और जनमानस को मथनेवाले सवालों और समस्याओं को अखबार के पन्नों पर स्थान देने से लेकर उनसे सीधे संवाद की कोशिशों तक विस्तृत आकार लेती गयी. फ़िर चाहे वह चुनावों के दौरान मुद्दों की समझ और तलाश के लिए आयेजित परिचर्चाएं और गोष्ठियां हों या फ़िर पाठक और अखबार के रिश्तों पर सीधे संवाद के लिए प्रभात खबर आपके द्वार की श्रृंखला रांची शहर की परिधि में बसे आदि‍वासीबहल गांव की समस्याओं को निरंतर सामने लाकर सरकार और प्रशासन को क्रियाशील करने का प्रयोग भी इन्हीं कोशिशों का एक अंग है. पुस्तक मेलों में जीवंत भागीदारी हो या फ़िर शैक्षणिक गतिविधियों के प्रसार की कोशिशों में प्रत्यक्ष उपस्थिति, सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं और खेलकूद की गतिविधियों का आयोजन करना हो या फ़िर कैरियर से संबंधित सूचनाओं के प्रसार के शिविर, हर जगह प्रभात खबर ने खुद को महज एक मूकदर्शक, तटस्थ खबरनवीस की भूमिका से कहीं आगे ले जाकर खुद को हर गतिविधि का साझेदार बनाया. इस प्रक्रिया में समाचारों के चयन और प्रस्तुति ने जहां जनता के हितों से जुड़े सरोकार सदा प्रमुख नीति निर्धारक प्रतिमान रहे, वहीं न्यूज फ़ॉर यूज की एक अंर्तधारा को भी सदैव प्रवाहमान रखा गया. इसके पीछे दृष्टियह कि पाठकों को तमाम ऐसी जानकारियां चाहिए, जिनका उनके दैनंदिन के जीवन और भविष्य की योजनाओं से सीधा जुड़ाव है. उन्हें उनके मतलब की पूरी और सही जानकारियां देना भी हमारा काम है और इसके तहत शिक्षा-जगत से जुड़ी आवश्यक सूचनाओं से लेकर कैरियर, व्यवसाय और प्रोद्योगिकी की नवीनतम जानकारियां उपलब्ध कराने का सिलसिला निरंतर जारी रखा गया. मार्केटिंग वालों की भाषा में कहें तो इसे हमने वैल्यू-ऐड के बतौर देखा, जहां किसी उपभोक्ता को उत्पाद के साथ कोई अतिरिक्त लाभ भी मिल जाता हो. समाचार, विचार और गतिविधियों के स्तर पर जहां प्रभात खबर ने अभिनव प्रयोग किये, वहीं समाचार संकलन, प्रेषण और मुद्रण की दुनिया में नवीनतम बदलावों और तकनीकों की कभी उपेक्षा नहीं की, बल्कि वक्त के साथ तकनीक को बदलते जाने में सदैव अग्रणी रहा. कंप्यूटराइज्ड संपादन और कंप्यूटराइज्ड लेखन के लिए अपनी पूरी टीम को मानसिक और तकनीकी तौर पर तैयार करनेवाले अखबारों की अग्रिम पंक्ति में प्रभात खबर ने अपना स्थान बनाये रखा और जिला मुख्यालयों से लेकर सुदूर क्षेत्रों तक मोडम या फ़ैक्स केंद्रों की व्यवस्था के जरिये समाचारों के त्वरित संकलन और प्रेषण का अनमोल नेटवर्क तैयार कर लिया. लिफ़ाफ़े और कुरियर अब हमारे लिए अतीत की चीज बन चुके हैं और देर रात की खबरें भी सुबह अखबार के पन्नों पर अपना स्थान रखती है. नये स्वरूप में प्रभात खबर की इस विकास-यात्रा का एक अहम पहलू यह भी है कि इस चुनौती को उस दौर में स्वीकार किया गया था, जब देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के बूम का हौव्वा था और इससे प्रिंट मीडिया पर तथाकथित खतरे की भविष्यवाणियां की जा रही थीं. लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में छोटे शहर से, अल्प पूंजी और अपर्याप्त संसाधनों के बावजूद पाठकों से रिश्ते और जन-सरोकार से जुड़ाव के जज्बे को अपनी पूंजी मानकर एक सर्वागीण, सफ़ल अखबार निकालने के संकल्प ने कभी पीछे मुड़कर देखने का अवसर ही नहीं आने दिया. इलेक्ट्रानिक मीडिया का आतंक कभी हमारी चिंताओं का अंग नहीं बन सका और फ़िर इंटरनेट के जमाने में जब यह कहा जाने लगा हो कि अब तो इंटरनेट ही अखबार का स्थान ले लेगा, इंटरनेट हमारे लिए किसी प्रतियोगी के बतौर सूचना के एक नये माध्यम और सहयोगी की ही भूमिका में सामने आया. एक ओर हमने अपने इंटरनेट संस्करण के जरिये अपने अखबार को विस्तार दिया तो दूसरी ओर देश-दुनिया की अद्यतन जानकारियां पाठकों तक पहुंचाने की दिशा में इंटरनेट का भरपूर सहयोग लिया. झारखंड अलग राज्य बनने के उपरांत इतिहास ने हमें जो चुनौतियां सौंपीं, वे अपेक्षा से कहीं अधिक गहरी निकलीं. एक नये राज्य के गठन के साथ झारखंडी जनमानस की स्वायत्तता और विकास की असीम आकांक्षाएं जुड़ी थीं और इसके अनुकूल समस्त संस्थाओं के नये सिरे से पुनर्गठन का दायित्व नये शासन-प्रशासन के कंधों पर. इस दिशा में नये शासन-प्रशासन से लेकर तमाम संस्थाओं से जिन नयी भूमिकाओं की अपेक्षा थीं, उन्हें स्वरूप प्रदान करने की चुनौतियां शेष हैं और इस प्रक्रिया ने असीम जनाकांक्षाओं को विभिन्न रूपों में निराशा उत्पन्न की हैं. स्वाभाविक तौर पर प्रभात खबर ने इन असीम जनाकांक्षाओं और उनके बिखराव की पूरी प्रक्रिया पर अपनी पैनी नजर रखी है और विकास के रास्तों से जुड़े तमाम सवालों पर जनमानस की बेचैनी को अभिव्यक्ति देने का कोई अवसर चुकने नहीं दिया है. इस क्रम में नये और आकार ले रहे शासन-प्रशासन की उपलब्धियों को जहां हमने कभी उपेक्षित नहीं किया, वहीं इसकी असफ़लताओं और अनियमितताओं को उजागर करने का दायित्व भी प्रभात खबर ने ही कबूल किया, भले ही इसके लिए कई बार शासन-प्रशासन की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा हो. आज प्रभात खबर के 7 संस्करण पूरे झारखंड और बिहार-बंगाल में आंचलिक पत्रकारिता की अप्रतिम सफ़लता का पताका लहरा रहे हैं और हमें गर्व है कि इन तीन राज्यों में प्रभात खबर ने खुद को बदलते वक्त की हर धड़कन का अभिन्न साझेदार बना रखा है.

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