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Thursday, June 30, 2011

परका ! तूने किया क्या

विष्णु राजगढि़या
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साल का आखिरी महीना कुछ अजीब-सी उलझन लेकर आने वाला है. सोलह दिसंबर को मैं पूरे पचास साल का हो जाऊंगा. हालांकि मेरे लिए जन्मदिन वगैरह की तारीखें कभी महत्वपूर्ण नहीं रहीं और न ही इस बार भी खुद मुझे ऐसे किसी दिन का इंतजार है. लेकिन न जाने किस तरह दोस्तों को यह बात मालूम हो गयी है. सबकी जिद है कि इस बार तो जन्मदिन मनाना ही है. पचासवां साल है आखिर. गोल्डन जुबली वर्ष. आदमी तो क्या, किसी भी देश, समाज और संगठन के लिए पचास साल का मौका काफी मायने रखता है. फिर मेरे जैसे आदमी को तो वैसे भी कम-से-कम इस बार थोड़ा-कुछ कर ही लेना चाहिए, जिसने अब तक की जिंदगी में कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया.

मेरे दोस्तों में रवि कुछ ज्यादा ही उत्साहित था. संभवतः उसी ने सबसे पहले किसी एक्सक्लूसिव खबर की तरह इस बात को लीक भी किया था कि इस साल सोलह दिसंबर को प्रकाश का पचासवां जन्मदिन आने वाला है. रवि ने अपने तौर पर ऐलान कर दिया था कि चाहे कुछ भी हो, इस बार तो प्रकाश से जन्मदिन की पार्टी लेकर ही रहेगा. इसे लेकर रवि के पास तर्क भी जोरदार हैं. उसका कहना है कि अंग्रेज लोग इसी तरह हर मौके को खुशी के मौके के बतौर सेलीब्रेट करके बोर जिंदगी में नये रंग भर लेते हैं. रवि का कहना था कि पूरी जिंदगी तो यूं ही ब्लैक एंड व्हाइट में गुजार दी, और बेशक आगे भी गुजारोगे, कम-से-कम पचास साल के मौके पर तो थोड़ा रंगीन हो जाओ. एकाध बार वह ऐसा भी कह बैठा कि बहुत कंजूसी कर ली, अब और नहीं चलेगी. इस बार तो अंटी ढीली करा ही लेंगे यार लोग!

रवि ऐसा कहता मानो जिंदगी भर का हिसाब चुकता कर लेना है. मौज-मस्ती के इन फार्मूलों में थोड़ी गंभीरता लाते हुए रवि यह भी कह बैठता- ’’यार, पचास साल एक बड़ा मुकाम होता है. कभी तो ठहर कर देखना चाहिए आदमी को कि वह कहां जा रहा है, कि वह कर क्या रहा है. आखिर लोग भी तो पूछेंगे कि पचास साल हो गये हैं परका, तूने अब तक किया क्या?’’

परका! इस नाम की क्रेडिट अम्मा को जाती है. बाबूजी ने तो बहुत सोच-समझकर मेरा नाम प्रकाश रखा था. लेकिन अम्मा मुझे परकास ही बुलाती. उसमें भी पूरा उच्चारण शायद ही कभी करती. प्रायः बड़े चाव से ’परका’ कहकर ही काम चला लेती. देखा-देखा मेरा पुकारू नाम परका ही हो गया. आज भी सगे संबंधियों, निकट मित्रों के लिए मैं परका ही हूं.
तो मामला यह है कि यार लोग मुझसे यह भी उम्मीद करते हैं कि मैं सोचूं कि अब तक मैंने किया क्या है. हालांकि रवि की बात से यह तो साफ था कि यह सारा कुछ इस भागमभाग की जिंदगी में मस्ती के कुछ पल चुरा लेने के दर्शन के तहत ही किया जा रहा है. फिर भी मेरी उलझन यह है कि इस बहाने कहीं वाकई पचास साल के हिसाब-किताब में न उलझ जाऊं. जहां तक पार्टी-सार्टी देने की बात है, सब जानते हैं कि मेरे पास इन चीजों के लिए न तो पैसा है, न फुरसत है और न शौक. ऐसे में अगर यार लोगों के दबाव में जन्मदिन मनाया भी, तो हजार-दो हजार में निपटा देना मुश्किल नहीं होगा. मेरे लिए सवाल सिर्फ उस खर्चे का नहीं, जिसका बोझ इस पचास साला आयोजन के बहाने मेरे कंधे पर आ सकता है. सवाल मेरे माइंडसेट और टेंपरामेंट का है. दोस्तों और बीबी-बच्चों की इच्छा को देखते हुए छोटा-मोटा आयोजन कर लेना कोई मुश्किल काम नहीं. न इसमें मुझे खास ऐतराज ही है. वैसे भी दफ्तर में लोग मुझे कुशल प्रबंधक के बतौर जानते रहे हैं और ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन मेरे लिए चुटकी भर का काम है.

फिर भी उलझन में हूं सोलह दिसंबर की उस तारीख को लेकर, जब मेरा पचासवां जन्मदिन आयेगा. अब तक यह बात साफ हो चुकी है कि यार लोगों के बीच यह कोई सवाल नहीं कि मैंने पचास साल में क्या किया. यह तो महज इस मस्ती के मौके को थोड़ा दार्शनिक बनाने की गरज से कही गयी बात थी. अगर मैं पहले ही सहजता से मान गया होता तो शायद ऐसे तर्क देने की नौबत भी न आती. लेकिन जब बात आ गयी तो मेरे दिलोदिमाग में अपनी जगह भी बना गयी है. लिहाजा, सोलह दिसंबर को लेकर मेरी उलझन की वजह यह भी हो सकती है कि खुद मुझसे ही मेरा यह सवाल बन चुका हो कि परका! तूने किया क्या?

पचास साल! जिंदगी के पूरे पचास साल! वाकई काफी बड़ा समय होता है यह. पूरी की पूरी दुनिया बदल जाती है. एक आदमी की जिंदगी में बहुत लंबा समय है यह. मानुष जनम लेकर जो कुछ करना था, वह पचास साल में नहीं किया, तो आगे क्या खाक कर पायेंगे? वक्त रहते नहीं किया तो जब शरीर साथ नहीं देगा, उस वक्त क्या कर लेंगे.....? यार लोग ठीक ही कहते हैं. हर किसी को, और मुझे भी, यह सोचना ही चाहिए कि आखिर मैंने किया क्या!

बात बर्थ-डे को लेकर शुरू हुई थी. लिहाजा, बच्चों के जन्मदिन को लेकर अपना रवैया रह-रहकर याद आता है. बड़ी बेटी के पहले जन्मदिन के मौके पर तो सचमुच मेरे अंदर काफी उमंग थी. सारे दोस्तों, संबंधियों को घर बुलाकर, खूब चाव से मनाया था. हालांकि फालतू का खर्चा उस वक्त भी नहीं किया. लेकिन बाद में तो बड़ी बेटी हो, मंझली या फिर सबसे छोटी, जन्मदिन की तारीखें कब आतीं और चली जातीं, कुछ पता ही नहीं चलता. जन्मदिन से पहले कई दिनों से बेटियां पूछा करतीं- ’’पापा इस बार बर्थ-डे मनाना है न?’’ ’’हां बेटा, खूब अच्छे से मनायेंगे.’’ मेरा रटा-रटाया जवाब होता.

पत्नी पूछती तो उसे भी लगभग ऐसा ही जवाब. यह भी कह बैठता कि तुम्हें जिस तरह मनाने का मन हो, वैसा कर लो. लेकिन ऐन मौके पर जरूर कोई न कोई ऐसी व्यस्तता निकल आती कि पत्नी और बेटियों की जुबान खुद ही बंद हो जाती. किलो-आध किलो का कोई केक कहीं से ले आया जाता, कुछ समोसे वगैरह लाकर, अगल-बगल के दो-चार बच्चों को बुला लिया और हो गया हैप्पी बर्थ-डे. कई बार तो केक भी घर पर ही बन जाता. चाहे जैसा भी बने. ज्यादातर मौकों पर मम्मी-पापा की तरफ से कोई गिफ्ट तक नहीं. बहुत हुआ तो बर्ड-डे के नाम पर कोई ड्रेस लाकर उसे ही गिफ्ट बता दिया. कभी गिफ्ट के नाम पर स्कूल बैग ला दिया.

एक बार तो हद हो गयी जब बर्थ-डे गिफ्ट के नाम पर एक सस्ता सा टेलीफोन सेट पकड़ा दिया (क्योंकि घर का टेलीफोन सेट खराब हो गया था और नया लाना जरूरी). पत्नी के बर्थ-डे और हमारे विवाह की वर्षगांठ के मौके भी बनावटी हंसी के दो बोल के सहारे निपट जाते. फिर भी पत्नी व बच्चों न कभी उफ न की. उलाहना नहीं दी. हां, एक बार सबसे छोटी बेटी ने अपने बर्थ-डे की शाम ठगे जाने का एहसास होने पर जिस कातर भाव से सुबकना शुरू किया था, वह क्षण कभी भुलाये नहीं भूलता.

हालांकि उस मौके के लिए भी खुद को माफ करने के लिए मेरे पास पर्याप्त एवं ठोस तर्क हैं. कुछ ही महीनों पहले मेरा एक्सीडेंट हुआ था. फिर तबादला. किराये के नये घर में किसी तरह एडजस्ट होने की जद्दोजहद थी. आर्थिक तंगी और काम की उलझन अलग. इतने पर भी तीन साल की सबसे छोटी बेटी का जन्मदिन मनाया ही जा सकता था. ज्यादा कुछ करना भी नहीं था. एक केक और कुछ नाश्ता भर तो लाना था. लेकिन अपनी ही दुनिया में खोया हुआ मैं, केक लाने के लिए दो किलोमीटर ज्यादा दूरी तक स्कूटर चलाने की जहमत के बजाय पांच-पांच रूपये की चार पेस्ट्री खरीद लाया. सोचा कि इसी से केक का लुक आ जायेगा. बिटिया का दिमाग तो सुबह से ही ठनका हुआ था क्योंकि बैलून-गुब्बारों से कमरा सजाने की कोई गतिविधि उसे नजर नहीं आयी थी. लेकिन जब उसने केक के बजाय पेस्ट्री देखी तो समझ गयी कि धोखा हुआ. सुबक-सुबककर रोने लगी, पछाड़ लेकर मम्मी की गोद में दुबक गयी. मुझे काटो तो खून नहीं. खूब समझाया. पुचकारा. पर एक बार उसके दिमाग में जो बात जमनी थी, जम गयी. अब तो वह बेहद मासूमियत से पूछा करती है- ’’पापा, इस बार तो मेरा बर्थ डे मनायेंगे न?’’ ’’हां बेटा, खूब धूम से मनायेंगे.’’ कहते हुए पिछला दृश्य तैर आता है मेरी आंखों के आगे. मेरी जुबान थरथराने लगती है. हालांकि ऐन मौके पर फिर वही टालमटोल.

यह सिर्फ पैसे की तंगी है या कोई मनहूसियत? समझ नहीं पाता. पैसे की तंगी एक बड़ा कारण तो है लेकिन यही प्रमुख भी नहीं. कभी किसी ने नहीं कहा कि बर्थ-डे मनाने में ज्यादा खर्च करो. बेहद मामूली खर्च में निपट जाता है सब कुछ. तो क्या मनहूसियत है यह? इस शब्द का उपयोग भी ज्यादती लगती है मुझे. दरअसल मुझे लगता है कि इसके पीछे अपना एक अलग किस्म का माइंडसेट, कहें कि मनोवृति ज्यादा जिम्मेवार है. यह मनोवृति मुझे यह कहने का हौसला देती है कि मुझे इन चीजों के लिए न समय है, न पैसा है, न शौक. यानी अगर इन चीजों के लिए पैसा और समय नहीं तो भी इसका कोई मलाल नहीं, क्योंकि इसका शौक भी नहीं. शौक होता तो मलाल भी होता.

हालांकि कोई यह भी कह सकता है कि शौक न होने का कारण भी शायद यही है कि तुम्हारे पास इसके लिए समय और पैसा नहीं.

तो मतलब यह हुआ श्रीमान, कि बच्चों तक के बर्थ-डे को लेकर कोई उमंग न दिखाने वाला आज अपने पचास साल के मौके को किस शौक से मनाये? वह भी तब, जबकि उसे इस सवाल से रू-ब-रू होना पड़े कि तुमने अब तक किया क्या है.

मुझे कुछ अजीब सा लगा यह सवाल. यही क्या कम है कि इन पचास साल में मैंने कभी चोरी नहीं की, आदतन या बेवजह या शौकिया झूठ नहीं बोला, अपने जानते किसी को सताया नहीं, किसी से मारपीट के लायक रहा ही नहीं, खून-कतल तो खैर सपने में भी संभव नहीं था. मुझे यह भी याद नहीं कि किसी से वैसी कोई बेइमानी की हो, जो बतायी जा सके. अपनी हैसियत, चाहे जो भी थोड़ी-बहुत रही हो, का कभी रूआब नहीं झाड़ा. न कभी दिखावा किया, न कोई तड़क-भड़क. महफिल में गये तो इस कदर कि दूसरों को मेरे पहुंचने का खास एहसास न हो. उठे भी इस तरह कि किसी को मलाल न रहे. मतलब बहुत कुछ ऐसा है जो पचास साल की इस उमर तक नहीं किया. क्या कुछ चीजों को न करना खुद में इस बात का जवाब नहीं कि मैंने क्या किया?

मुझे लगा कि मैंने क्या नहीं किया, यह बताना हास्यास्पद है. लोग यह थोड़े ही पूछेंगे कि तुमने क्या नहीं किया. यह एक पोजिटिव सवाल है. इसका निगेटिव जवाब नहीं हो सकता.

उलझन यही कि मैं कैसे बताऊं कि मैंने कभी बेइमानी नहीं की. इसे साबित करने के लिए मेरे पास वैसा कोई प्रमाण नहीं. ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता, जिसे अपनी ईमानदारी की मिसाल बता सकूं. कभी किसी का नोटों से भरा सूटकेस या हीरों का हार गिरा नहीं मिला जिसे लौटाकर अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाऊं. न कभी किसी ने रिश्वत आॅफर की, जिसे ठुकराकर अपनी ईमानदारी के झंडे गाड़ सकूं. यह एहसास ही काफी है कि जो भी कुछ किया, अपने तईं पूरी ईमानदारी बरती. बेइमानी का उसमेें कोई स्कोप नहीं रहा. न ही मैंने उसकी तलाश की. किसी छल-प्रपंच की न तो नीयत रही, न आदत, और न कभी इसकी कोई जरूरत पड़ी. बेहद सरलता से गुजर गया पचास साल का यह लंबा दौर.

लिहाजा, यह समझाना कितना मुश्किल है मेरे लिए कि मैंने अब तक क्या किया. अजीब बात है कि क्या किया, यह बताने के लिए बार-बार सिर्फ यही सब बातें जेहन में आ रही हैं कि क्या नहीं किया. यार लोग हंसेंगे कि हमने यह थोड़े ही पूछा है कि तुमने क्या नहीं किया, हम तो यह जानना चाहते हैं कि तुमने क्या किया.

अप्रैल का महीना आते-आते रूह अफजा और आॅरेंज स्कैच की दो-चार बोतलें लाकर रख दिया करता फ्रीज में. फिर किसी दिन पेप्सी या कोकाकोला की दो या ढाई लीटर की बोतल भी. गरमी के दिन हैं तो आने-जाने वालों के लिए कुछ ठंडा तो होना ही चाहिए घर में. हालांकि दो-चार बोतलों के बाद ही जेब जवाब देने लगती. इसके बाद मेरा एक हिट डायलाॅग होता- ’’यार......., शराब पीने के लिए भी कलेजा चाहिए......एक तो आप शराब पीकर अपना कलेजा फूंकते हो और उससे बढ़कर यह....... कि किस तरह भाई लोग शराब खरीदने, पीने-पिलाने की हिम्मत जुटाते हैं.........? यहां तो कोल्डड्रिंक्स खरीदने में ही हालत खराब....!’’

तो इस तरह गरमी का मौसम चढ़ने के पहले ही फ्रीज में ठंडा रखने का हौसला काफूर हो जाया करता. अब सोचता हूं कि इसे अपनी उपलब्धि में रखूं या नाकामी में, कि इन पचास सालों में न कभी शराब की एक बूंद पी, न किसी को पिलायी. आप कह सकते हैं कि यह कोई उपलब्धि कैसे होगी कि तुमने कभी दारू नहीं पी. अगर इसके बदले तुमने कुछ और किया होता..... मसलन, दूसरे लोग जितने की दारू पी गये, उतने पैसों की एफडी ही कर दी होती बैंक में तो हम मान लेते तो तुमने कुछ किया! यह क्या बहादुरी कि शराब भी नहीं पी और पैसे भी नहीं बचाये?

पचास साल में कभी किसी से चंदा लिया नहीं तो किसी को दिया भी नहीं. बचपन में एक बार सरस्वती पूजा का चंदा करने निकला जरूर था, लेकिन मेरी भूूमिका चंदा मंडली की भीड़ बढ़ाना मात्र थी. बाद में भी कई मौके आये जब मुझसे अपेक्षा की गयी कि मैं चंदा वसूली करूं, लेकिन मैंने नहीं किया. मैं खींस निपोरकर साफ कह डालता कि यार अभी किसी से चंदा लेंगे तो कल किसी को देना भी तो होगा. आज ले लें, कल देंगे कहां से? ऐसी ही मासूमियत के साथ अमूमन हर मौके पर चंदा देने के मामले में अपनी बेचारगी साफ प्रकट कर दी. दूसरे लोग बढ़-चढ़कर चंदा देने की बोली लगाते, खुद को दानवीर कर्ण दिखाते और मैं भींगी बिल्ली की तरह दुबका रहता. झेंपकर कह देता- यार, अभी कहां से दूंगा.
ऐसी ही प्रवृति भिखारियों के प्रति भी रही. ट्रेन में सामने आये भिखमंगों, अपाहिजों को देखकर मुंह फेर लेता. शायद ही कभी किसी को भीख दी हो. और फिर भीख तो क्या, पूजा में आरती की थाली सामने आये तो ज्योति लेते वक्त या पंडित जी को दक्षिणा देने के लिए मुट्ठी शायद ही खुल पाती.

मतलब यह कि कभी दान-पुण्य में कोई खर्च नहीं किया. न कभी कोई तीर्थयात्रा की, न कभी पूजा-पाठ के नाम पर धेला खर्च किया. लोग टोकते तो कहता, ’यार, हमें तो पाप करने की ही फुरसत नहीं, पुण्य क्या करूं.’ किसी को जवाब देता- ’हमने कोई पाप थोड़े ही किया है जो पुण्य करें.’ किसी से कहता- ’पहले थोड़ा पाप कर लेने दो, फिर पुण्य भी कर लूंगा.’

लेकिन हकीकत यह है कि इन पचास वर्षों में न तो कभी अपने जानते कोई पाप कर पाया, और न ही कभी पुण्य की जरूरत समझी. बचपन से ही पूजा-पाठ, धर्म-कर्म से लगाव नहीं रहा. धार्मिक क्रियाकलापों, कर्मकांड वगैरह से चिढ़ रही. यार लोगों को दस-दस दिनों की छुट्टियां लेकर तीर्थयात्रा वगैरह पर जाते देखता तो हैरानी होती कि कहां से इनके पास इतना समय, इतना पैसा आ जाता है इन चीजों के लिए. यहां तो अपना महीने का खर्चा चलाना मुश्किल हो रहा है. कहां से कोई फुटानी करे!

इस तरह, पचास वर्षों में कभी तीर्थयात्रा या घूमने-फिरने के नाम पर कुछ ऐसा नहीं किया जिसका उल्लेख इस सवाल के जवाब में किया जा सके कि मैंने क्या किया. परिवार की संरचना कुछ ऐसी रही कि अपने सामान्य घरेलू खर्चों के सिवा कोई अतिरिक्त खर्च सिर पर नहीं आया. बहन थी नहीं और छोटे भाई सब खुद अपने पैरों पर खड़े हो गये. मां-पिताजी का भी कोई दायित्व नहीं उठाना पड़ा. सिर्फ अपना, अपने बीवी-बच्चों का खर्चा भर उठाता रहा इन पचास वर्षों में. इतने कम बोझ के बाद भी कहीं जमीन-जायदाद नहीं बनायी, बैंक बैलेंस नहीं खड़ा किया. प्राइवेट नौकरी के सहारे अब तक तो कटी, आगे बुढ़ापे का क्या होगा- इस पर कभी नहीं सोचा. न कभी यह सोचा कि तीन-तीन बेटियों का क्या होगा. ऐसे में कोई यही पूछे कि बेटियों के हाथ पीले करने की तैयारी के बतौर तुमने क्या किया तो इसका भी कोई जवाब मुश्किल ही होगा.

बेटियों की शादी कैसे होगी, इस पर तो कभी नहीं सोचा, किंतु अपनी शादी को लेकर जरूर एक सपना था आदर्श प्रस्तुत करने का. न कोई तामझाम हो, न कर्मकांड, न फालतू का खर्चा. किसी विधवा से विवाह तक को तैयार था. पत्नी हो जो जीवनसाथी हो. अपने पैरों पर स्वाभिमान के साथ खड़ी. हालांकि विधवा विवाह तक मामला पहुंचा नहीं. शादी हुई तो लाख कोशिशों के बावजूद थोड़ा तामझाम, थोड़ा कर्मकांड हुआ ही. पत्नी भी कुल मिलाकर धर्मपत्नी ही बनकर रह गयी. इस बात का संतोष जरूर रहा कि दहेज के नाम पर कुछ नहीं लिया. कमोबेश सादगी से निपट गया सारा कुछ. लेकिन सगे-संबंधियों को इसका मलाल रह गया. मेरे आदर्श को किसी तरह काम चला लेने और कहिये तो मनहूसियत के बतौर देखा गया. अपने आदर्श का मतलब किसी को नहीं समझा सका. बाद में, छोटे भाइयों की शादी के वक्त कहा गया कि इस बार तो ढंग से कीजिये शादी. यानी मेरा विवाह ढंग से नहीं हुआ?

इस तरह, मैं आज यह बोलने की स्थिति में भी नहीं कि पचास साल में मैंने जिसे अपने जीवन का आदर्श समझा, उस पर चला. मैं तो किसी को यह तक नहीं समझा पाया कि मेरे आदर्श क्या हैं. मेरे लिए यह समझाना वाकई काफी मुश्किल है कि मैंने अब तक क्या किया. काफी सरल जीवन रहा अपना. कभी किसी को पूजनीय नहीं बनाया. न कभी ऐसा मौका आने दिया कि कोई मेरी पूजा करे. न कभी मेरी कोई लाॅटरी उठी और न कभी कोई बड़ा नुकसान हुआ. एक बार जेब जरूर कटी जिसमें लगभग डेढ़ हजार रूपये चले गये. एक बार ट्रेन में अटैची उठ गयी जिसमें दो-तीन जोड़ी कपड़े थे, कुछ किताबें थीं. ऐसे छोटे नुकसानों के सिवा कभी कोई बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं हुआ.

कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि कोई अप्रत्याशित धन हाथ आ गया हो. लाॅटरी उसी की उठती है जो खरीदता है. मैंने दुर्गा पूजा पर बच्चों को दस-बीस रुपये की एकाध टिकट दिलाने के सिवा कभी इसमें किस्मत नहीं आजमायी, न किसी गड़े धन की कल्पना की. टीवी पर कौन बनेगा करोड़पति आने लगा तो अम्मा बड़े गर्व से कहतीं- ’’मेरा परका चला जाये वहां तो हर सवाल का जवाब दे आये.’’ अम्मा की बात हंस कर टाल जाया करता. यार लोग भी उकसाते रहे. लेकिन केबीसी में किस्मत आजमाने की धुन कभी नहीं चढ़ी. अब लोग पूछेंगे कि अब तक तुमने किया क्या तो भला क्या जवाब दूं मैं?

पचास साल ! एक आदमी देखते-देखते अपने जीवन के पचास साल गुजार देता है. एक सरल और नामालूम आदमी की तरह पचास साल.....! कुछ इस कदर कि कभी किसी का कोई खास भला नहीं कर सके तो कुछ बुरा भी न करे......! पचास साल ऐसे कि बताने, दिखाने लायक कोई बुरा या भला काम ही न किया. ऐसी जिंदगी के क्या मायने? आप ही बताइये!

क्या आप भी पूछना चाहेंगे मुझसे, कि परका ! तूने किया क्या?

Sunday, June 26, 2011

यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा

विष्णु राजगढ़िया
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जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ने वेज बोर्ड को मीडिया पर हमला बताकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है. जबकि मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का भयंकर आर्थिक शोषण है. आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करके भी एक पत्रकार किसी प्रोफेसर, सीए, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस या कंप्यूटर इंजीनियर से आधे या चौथाई वेतन पर क्यों काम करे? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो यह सवाल हर नागरिक और हर मीडियाकर्मी को पूछना चाहिए.
कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए. वरना अखबार प्रबंधकों की लॉबी तरह-तरह से टेसुए बहाकर एक बार फिर पत्रकारों को अल्प-वेतनभोगी और बेचारा बनाकर रखने में सफल होगी.

आज जो अखबार प्रबंधक नये वेज बोर्ड पर आंसू बहा रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रोडक्ट यानी अखबार में जो चीज बिकती है- वह समाचार और विचार है. अन्य किस्म के उत्पादों में कई तरह का कच्चा माल लगता है. लेकिन अखबार का असली कच्चा माल यानी समाचार और विचार वस्तुतः संवाददाताओं और संपादनकर्मियों की कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत और कौशल से ही आता है. इस रूप में पत्रकार न सिर्फ स्वयं कच्चा माल जुटाते या उपलब्ध कराते हैं, बल्कि उसे तराश कर बेचने योग्य भी बनाते हैं.

इस तरह देखें तो अन्य उद्योगों की अपेक्षा अखबार जगत के कर्मियों का काम ज्यादा जटिल होता है और उनके मानसिक-शारीरिक श्रम से कच्चा माल और उत्पाद तैयार होता है. तब उन्हें दूसरे उद्योगों में काम करने वाले उनके स्तर के लोगों के समान वेतन व अन्य सुविधाएं पाने का पूरा हक है. दुखद है कि मीडियाकर्मियों के बड़े हिस्से में इस विषय पर भयंकर उदासीनता का लाभ उठाकर अखबार प्रबंधकों ने भयंकर आर्थिक शोषण का सिलसिला चला रखा है.

जो अखबार 20 साल से महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे वरीय उपसंपादक को 20-25 हजार से ज्यादा के लायक नहीं समझते, उन्हीं अखबारों में किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट, ब्रांड मैनेजर या विज्ञापन प्रबंधक की शुरूआती सैलरी 50 हजार से भी ज्यादा फिक्स हो जाती है. सर्कुलेशन की अंधी होड़ में एजेंटों, हॉकरों और पाठकों के लिए खुले या गुप्त उपहारों और प्रलोभनों के समय इन अखबार प्रबंधकों को आर्थिक बोझ का भय नहीं सताता. चार रुपये के अखबार की कीमत गिराकर दो रुपये कर देने या महज एक रुपये में किलो भर रद्दी छापने या अंग्रेजी के साथ कूड़े की दर पर हिंदी का अखबार पाठकों के घर पहुंचाने में भी अखबार प्रबंधकों को गर्व का ही अनुभव होता है. लेकिन जब कभी पत्रकारों को वाजिब दाम देने की बात आती है, तब इसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले जैसे हास्यास्पद तर्क से दबाने की कोशिश की जाती है.

आज इन मुद्दों पर एक सर्वेक्षण हो तो दिलचस्प आंकड़े सामने आयेंगे-
1. किस-किस मीडिया संस्थान में वर्किंग जर्नलिस्ट वेज बोर्ड लागू है?
2. जहां लागू है, उनमें कितने प्रतिशत मीडियाकर्मियों को वेज बोर्ड का लाभ सचमुच मिल रहा है?
3. मीडिया संस्थानों में प्रबंधन, प्रसार, विज्ञापन जैसे कामों से जुड़े लोगों की तुलना में समाचार या संपादन से जुड़े लोगों के वेतन व काम के घंटों में कितना फर्क है?
4. मजीठिया वेतन आयोग के बारे में कितने मीडियाकर्मी जागरूक हैं और इसे असफल करने की प्रबंधन की कोशिशों का उनके पास क्या जवाब है?
5. जो अखबार मजीठिया वेतन आयोग पर चिल्लपों मचा रहे हैं, वे फालतू की फुटानी में कितना पैसा झोंक देते हैं?

जो लोग यह कह रहे हैं कि पत्रकारों को वाजिब वेतन देने से अखबार बंद हो जायेंगे, वे देश की आखों में धूल झोंककर सस्ती सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. जब कागज-स्याही या पेट्रोल की कीमत बढ़ती है तो अखबार बंद नहीं होते. दाम चार रुपये से घटाकर दो रुपये करने से भी अखबार चलते रहते हैं. हाकरों को टीवी-मोटरसाइकिल बांटने और पाठकों के घरों में मिठाई के डिब्बे, रंग-अबीर-पटाखे पहुंचाने से भी अखबार बंद नहीं होते. प्रतिभा सम्मान कार्यक्रमों और महंगे कलाकारों के रंगारंग नाइट शो से भी कोई अखबार बंद नहीं हुआ. शहर भर में महंगे होर्डिंग लगाने और क्रिकेटरों को खरीदने वाले अखबार भी मजे में चल रहे हैं. तब भला पत्रकारों को वाजिब मजूरी मिलने से अखबार बंद क्यों हों? इससे तो पत्रकारिता के पेशे की चमक बढ़ेगी और अच्छे, प्रतिभावान युवाओं में इसमें आने की ललक बढ़ेगी, जो आ चुके हैं, उन्हें पछताना नहीं होगा. इसलिए यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा. वक्त है पत्रकारिता को वाजिब वेतन वाला पेशा बनाने का. सबको वाजिब हक मिलना चाहिए तो मीडियाकर्मियों को क्यों नहीं?

एक बात और. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए मुख्यतः ऐसे संपादक जिम्मेवार हैं, जो कभी खखसकर अपने प्रबंधन के सामने यह नहीं बोल पाते कि अखबार वस्तुतः समाचार और विचार से ही चलते हैं, अन्य तिकड़मों या फिड़केबाजी से नहीं. प्रबंधन से जुड़े लोग एक बड़ी साजिश के तहत यह माहौल बनाते हैं कि उन्होंने अपने सर्वेक्षणों, उपहारों, मार्केटिंग हथकंडों, ब्रांड कार्यक्रमों वगैरह-वगैरह के जरिये अखबार को बढ़ाया है. संपादक भी बेचारे कृतज्ञ भाव से इस झूठ को स्वीकार करते हुए अपने अधीनस्थों की दुर्दशा पर चुप्पी साध लेते हैं. पत्रकारिता का भला इससे नहीं होने वाला. समय है सच को स्वीकारने और पत्रकारिता को गरिमामय पेशा बनाने का, ताकि इसमें उम्र गुजारने वालों को आखिरकार उस दिन को कोसना न पड़े, जिस दिन उन्होंने इसमें कदम रखा था.

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव पर कांग्रेस के प्रहार का मूलमंत्र

भ्रष्टाचार करो, सहो, लड़ो मत
विष्णु राजगढ़िया
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अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन ने राजनेता-नौकरशाह-कारपोरेट गंठजोड़ की खुली लूट पर गंभीर सवाल उठाये हैं. ये ऐसे सवाल हैं, जो लंबे समय से भारतीय राज-समाज को मथ रहे हैं.
इन बुनियादी सवालों को उठाने की हिम्मत और हैसियत किसी राजनीतिक दल के पास नहीं. इसीलिए ऐसे सवाल अब सिविल सोसाइटी, एनजीओ और बाबा टाइप लोग उठा रहे हैं. कांग्रेस और उसका चाटुकार मीडिया उन सवालों पर चर्चा के बजाय सवाल उठाने वालों पर ही चर्चा केंद्रित करके बचाव का रास्ता ढूंढ़ रहा है.

जो लोग यह कह रहे हैं कि राजनीति के बजाय अन्ना जैसों को समाजसेवा और बाबा जैसों को धरम-करम और योगा में सिमटे रहना चाहिए, उन्हें यह एहसास नहीं कि राजनीतिकों के प्रति भारतीय जनमानस में आम तौर पर और नयी पीढ़ी में खास तौर पर कितनी गहरी अनास्था और घृणा व्याप्त है. विकल्प की तलाश सबको है और कोई विकल्प देने में लेफ्ट से राइट और मध्यमार्गियों तक सब किस कदर अप्रासंगिक हो चुके हैं. रामदेव के पीछे लाखों लोगों के हुजूम और अन्ना हजारे के मंच से राजनेताओं को खदेड़े जाने का मतलब भी यही है.

आज उठे सवालों पर सोचने और शर्मसार होने के बजाय कांग्रेस और उसके चाटुकारों के जवाबी हमलों से यह साबित हुआ है कि भ्रष्टाचार करना जितना आसान है, भ्रष्टाचार से लड़ना उतना ही मुश्किल. कांग्रेस और मीडिया के इस प्रहार का मूलमंत्र है- भ्रष्टाचार करो, भ्रष्टाचार सहो, इससे लड़ो मत.

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कभी शासकों को बहुत प्यारे हुआ करते थे. प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में चार केंद्रीय मंत्रियों ने एयरपोर्ट पर बाबा रामदेव के सामने साष्टांग दंडवत करके इसका एहसास भी कराया. बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म कराने के लिए कांग्रेस ने क्या गुपचुप समझौता किया, यह एक अलग अध्याय है. लेकिन जब रामदेव ने काला धन और भ्रष्टाचार पर तीन दिनों के तथाकथित तप के नाम पर जनजागरण की जिद नहीं छोड़ी तो कांग्रेस सरकार और उसके मीडिया ने बाबा रामदेव की जो दुर्गति की, वो सबके लिए सबक है.

रामदेव की संस्था ने अरबों की संपत्ति बनायी. अन्ना टीम के सदस्य एडवोकेट शांति भूषण ने भी करोड़ों की जायदाद जुटायी. यह उन्होंने एक दिन में या आज नहीं किया. लेकिन इस पर सवाल तब तक नहीं उठे, जब तक कि ये लोग अपना संपत्ति-साम्राज्य बनाने में जुटे रहे. ये इसी धंधे में जुटे रहते तब भी इन पर सवाल नहीं उठते. इन पर सवाल तब उठे, जब इन्होंने भ्रष्टाचार, काला धन और सत्ता-शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए असुविधाजनक सवालों पर नागरिकों को सचेत और एकजुट करना शुरू किया.

अगर अन्ना-बाबा का आंदोलन नहीं होता, तो रामदेव को अपने ट्रस्ट का खजाना भरने की छूट थी. उनके सहयोगी बालकृष्ण को तथाकथित फरजी पासपोर्ट का उपयोग करने से भी कोई नहीं रोक रहा था. शांतिभूषण भी अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार को स्वतंत्र थे. इन सबको अचानक सवालों के घेरे में लाकर शासक वर्ग ने साफ संदेश दिया है- हर कोई अपनी औकात में रहते हुए भ्रष्टाचार की मूल धारा में इत्मिनान के साथ गोते लगाता रहे. जिस किसी ने इस मूल धारा के विपरित जाने या इसमें बहते हुए इसके विपरित धारा बहाने की कोशिश की, उसकी खैर नहीं.

कोई आश्चर्य नहीं यदि किरण बेदी से लेकर अन्ना टीम के अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया जैसे लोगों को भी ठिकाने लगाने के लिए जल्द ही कोई शिगूफे छोड़ दिये जायें. कांग्रेस और मीडिया के प्रहार का साफ संदेश है कि जो कोई भी ऐसे आंदोलनों में आगे आयेगा, उन्हें उनके ही इतिहास के पन्नों में धकेल दिया जायेगा.

जो लोग अन्ना और रामदेव के आंदोलन की तथाकथित असफलता से खुश हैं, उन्हें मालूम होना चाहिये कि यह इस देश में गांधीवादी सत्याग्रही आंदोलनों की ताबूत में आखिरी कील साबित होगी. इसके बाद का रास्ता सिर्फ व्यापक जनविद्रोह, अराजकता या हिंसक संघर्षों की ओर ही ले जायेगा.

प्रसंगवश, हताशा में रामदेव द्वारा शास्त्र के साथ शस्त्र का भी प्रशिक्षण देने के बयान पर उठा बवाल भी कम दिलचस्प नहीं. रामदेव के इस बयान को उसके प्रसंग से काटकर हाय-तौबा के अंदाज में पेश करने में चाटुकार मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी. एक दिग्गज चाटुकार ने तो बिहार की जातिवादी निजी सेनाओं के अनुभवों और इतिहास से जोड़कर लंबा-चौड़ा मूर्खतापूर्ण विश्लेषण लिख मारा, जिसे एक राष्ट्रीय दैनिक ने संपादकीय पेज की शोभा बनाया.

जबकि सबको मालूम है कि बाबा रामदेव भारतीय राज-व्यवस्था के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष छेड़ने वाली कोई सेना बनाने की बात नहीं कर रहे थे. वह तो बस दिल बहलाने के लिए और पूरी सदाशयता के साथ ऐसे नौजवानों को तैयार करने की बात कर रहे थे, जो किसी को पीटें नहीं तो किसी से पिटें भी नहीं. उनके सपनों की इस सेना का हथियार उसके मनोबल और योग से बनी देह के सिवाय शायद ही कुछ हो.

लेकिन इस पर मची हायतौबा के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने साक्षात लौहपुरूष की तरह घोषणा कर दी कि रामदेव ने ऐसा कुछ किया तो उससे हम फौरन निपटेंगे. ऐसी गर्वोक्ति करते वक्त चिदंबरम यह भूल गये थे कि भारतीय राजव्यस्था को उखाड़ फेंकने के नाम पर ऐसी हथियारबंद सेनाएं पूरे इत्मिनान के साथ दंतेवाड़ा से पलामू तक अपना माओवादी साम्राज्य चला रही हैं. उन इलाकों में घुसने और उनसे दो-दो हाथ आजमाने की कोई योजना, हैसियत या इच्छाशक्ति न तो केंद्र के पास है और न ही संबंधित राज्यों के पास.

इससे यह भी साबित हुआ कि अगर आप वाकई कोई हथियारबंद सेना बनाकर बगावत पर उतरे हों, तो शासन को भीगी बिल्ली की तरह बैठे रहने में कोई शर्म नहीं. लेकिन अगर आप आत्मरक्षार्थ कोई सत्याग्रही सेना की बात भी करें तो चिदंबरम और उनके कलमबंद सैनिक आप पर टूट प़ड़ेंगे. ठीक उसी तरह, जैसे आप भ्रष्टाचार करें, भ्रष्टाचार सहें तो आपकी वाह-वाह, इससे लड़ें तो आप ही निशाने पर होंगे.

अन्ना और रामदेव के आंदोलनों का हश्र चाहे जो हो, इस बहाने कई बुनियादी सवालों ने भारतीय जनमानस में गहरी पैठ तो जरूर जमा ली है. आम तौर पर राजनीति को गंदी चीज समझकर इससे दूर रहने को अभ्यस्त जनमानस के बड़े हिस्से खासकर नौजवानों ने गैर-राजनीतिक तरीके से ही सही, राजनीति के कुछ गूढ़ मंत्र भी समझ लिये हैं. इससे शायद अब भारतीय राजनेता-नौकरशाह-कारपोरेट गठजोड़ को अपनी मनमानी को पहले के तरीकों से जारी रखना आसान नहीं होगा. उन्हें शोषण के और बेशक दमन के भी नये-नये तरीके अपनाने होंगे. ठीक उसी तरह, जैसे जनता भी लड़ने के नये-नये तरीके सीख रही है.

कौन जाने वर्ष 2011 को एक बड़े सबक के ऐतिहासिक दौर के बतौर याद किया जाये. कम-से-कम गांधीवादी सत्याग्राही आंदोलनों की सीमा उजागर करने के लिए तो अवश्य ही.