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Sunday, December 27, 2009


रणेन्द्र का उपन्यास- ग्लोबल गांव के देवता
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विष्णु राजगढ़िया
सिंगूर, लालगढ़, सलवा जुड़ुम और आपरेशन ग्रीन हंट के इस दौर में कवि, विचारक एवं कथाकार रणेन्द्र का उपन्यास आया है- ग्लोबल गांव के देवता
यह सामयिक जटिलताओं और वर्तमान चुनौतियों व बहसों की साहित्यिक प्रस्तुति भर नहीं है। इसमें मानव समाज की उत्पत्ति से विकासक्रम में बेहतरी की अदम्य तलाश एवं निरंतर कठिन श्रम के जरिये विशिष्ट एवं युगांतकारी योगदान करने वाले समुदायों एवं खासकर जनजातियों को कालांतर में निरंतर हाशिये पर धकेल दिये जाने की ऐतिहासिक समझ भी मिलती है।
इस रूप में देखें तो इसमें अतीत की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर वर्तमान की चुनौतियों को समझने की कोशिश की गयी है। साथ ही यह पूंजी की पोषक सत्ता द्वारा जनजातियों को निरंतर वंचित करने के षड़यंत्रों को ग्लोबल फलक से उठाकर गांव के स्तर तक लाते हैं। इस तरह यह अतीत के साथ वर्तमान और ग्लोबल के साथ लोकल के सहज सामंजन का खूबसूरत उदाहरण है।
रणेन्द्र का यह उपन्यास आधुनिक भारत में जनजातियों के लिए उत्पन्न अस्तित्व-मात्र के संकट के साथ ही जनप्रतिरोध की विविध धाराओं के उदय एवं उनकी जटिलताओं की सांकेतिक रूपों में महत्वपूर्ण प्रस्तुति करता है। ग्लोबल देवताओं को खनिज की भूख है और उनकी भूख मिटाने के लिए जनजातियों को जमीन से बेदखल करना जरूरी है। भारत सरकार को भी जनजातियों से ज्यादा जरूरी भेड़िये को बचाना है।
आदिवासियों के विस्थापन और इसके खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध से लेकर हिंसक प्रतिरोध तक की स्थितियों को सामने लाने के लिए रणेन्द्र ने असुर जनजाति को केंद्र में रखा है। आग और धातु की खोज करने वाली] धातु को पिघलाकर उसे आकार देने वाली कारीगर असुर जाति को मानव सभ्यता के विकासक्रम में हाशिये पर धकेल दिये जाने और अब अंततः पूरी तरह विस्थापित करके अस्तित्व ही मिटा डालने की साजिश इस उपन्यास में सामने आती है।

उपन्यासकार बाहर से गये एक संवेदनशील युवा उत्साही स्कूली शिक्षक के बतौर इस जनजाति के सुख-दुख और जीवन-संघर्षों में खुद को स्वाभाविक तौर पर हर पल शामिल पाता है। इस दौरान वह असुर जनजाति के संबंध में कई मिथकों एवं गलत धारणाओं की असलियत को समझता है, वहीं ऐतिहासिक कालक्रम में इस जनजाति के खिलाफ साजिशों की ऐतिहासिक समझ भी हासिल करता है। दरअसल यही समझ उसे इन संघर्षों में शरीक होने की प्रेरणा देता है।
उसे लालचन असुर के रूप में खूब गोरा-चिट्टा आदमी मिलता है जबकि उसकी धारणा में असुर लोग खूब लंबे-चैड़े, काले-कलूटे भयानक लोग थे। छरहरी-सलोनी पियुन एतवारी भी असुर है, यह जानकर भी युवा शिक्षक चकित है।
जल्द ही असुर लोगों के ज्ञान व समझ को लेकर गलत धारणाएं भी मिट जाती हैं। समुदाय के सुख-दुख में भागीदार उपन्यासकार जहां धीरे-धीरे असुर जनजाति के खिलाफ सदियों से चली आ रही साजिशों को समझता जाता है, वहीं इलाके में बाक्साइड के रूप में मौजूद कीमती खनिज की लूटखसोट के लिए देशी-विदेशी पूंजी के हथकंडों और हमलों के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनता है। अहिंसक, शांतिपूर्ण याचनाएं अनसुनी कर दी जाती है और शिवदास बाबा का कराया समझौता लागू होने के बजाय आंदोलन को बिखरने का षड़यंत्र ही साबित होता है।
असुरों को उजाड़ने की साजिश के खिलाफ रुमझुम असुर का प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिखता है- भेड़िया अभयारण्य से कीमती भेड़िये जरूर बच जायेंगे श्रीमान्, किंतु हमारी असुर जाति नष्ट हो जायेगी....।
लेकिन ऐसे पत्र आंदोलनकारियों पर पुलिस हमले नहीं रोक पाते और छह मृतकों को पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली की संज्ञा मिलती है। बिना पुनर्वास और बिना मुआवजे के 37 गांवों में सदियों से रहने वाले हजारो परिवार आखिर कहां जायें] इसका जवाब किसी के पास नहीं। उल्टे, ऐसे सवाल उठाने वालों के लहू से धरती लाल हो जाती है और यूनिवर्सिटी हास्टल से सुनील असुर के रूप में एक नयी शक्ति सामने आती है। आंदोलन की विविध धाराओं की जटिलताओं और सवालों को सामने लाकर उपन्यास ढेर सारे सवाल छोड़ जाता है।
उपन्यासकार के सामने निश्चय ही यह चुनौती रही होगी कि पाठकों को असुर जनजाति के विकासक्रम की जटिलताओं के संबंध में प्रामाणिक तथ्यों की प्रस्तुति करके हुए मानवशाष्त्रीय एवं ऐतिहासिक पहलुओं का विवरण कहीं इसे बोझिल नहीं बना दे। इसके साथ ही, विभिन्न रीति-रिवाजों एवं अंधविश्वासों का विवरण भी उपन्यास को जनजातीय समाजशास्त्र की पुस्तक में बदल सकता था।
ऐसे खतरे उठाते हुए रणेन्द्र ने कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर संतुलन बनाते हुए उपन्यास को रोचक बनाये रखा। ऐसे एक व्यापक फलक को लेकर चलते हुए उपन्यासकार ने ललिता जैसी पात्र के भावुक प्रसंगों के लिए भी गुंजाइश निकालकर अपनी लेखन क्षमता एवं कल्पनाशीलता का परिचय दिया है।

इस उपन्यास के लिए भाई रणेन्द्र को बधाई। आप भी उन्हें 094313-91171 नंबर पर बधाई दे सकते हैं।

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उपन्यास-परिचय
रणेन्द्र
ग्लोबल गांव के देवता
भारतीय ज्ञानपीठ
पृष्ठ- 100
वर्ष- 2009
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Friday, November 20, 2009

आनलाइन हस्ताक्षर करके विरोध जतायें
विष्णु राजगढ़िया
बिहार में सूचना मांगने वालों को प्रताड़ित करने की काफी शिकायतें आ रही हैं। अब बिहार सरकार ने सूचना पाने के नियमों में अवैध संशोधन करके एक आवेदन पर महज एक सूचना देने का नियम बनाया है। अब गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सिर्फ दस पेज की सूचना निशुल्क मिलेगी, इससे अधिक पेज के लिए राशि जमा करनी होगी। ऐसे नियम पूरे देश के किसी राज्य में नहीं हैं। ऐसे नियम सूचना कानून विरोधी हैं। इससे सूचना मांगने वाले नागरिक हताश होंगे। इससे नौकरशाही की मनमानी बढ़ेगी। इस तरह बिहार सरकार ने सूचना कानून के खिलाफ गहरी साजिश की है। अगर सूचना पाने के नियमों में संशोधन हुआ तो नागरिकों को सूचना पाने के इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित होना पड़ेगा। एक समय बिहार को आंदोलन का प्रतीक माना जाता था। आज सूचना कानून के मामले में बिहार पूरे देश में सबसे लाचार और बेबस राज्य नजर आ रहा है। वहां सुशासन की बात करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुशासन की भूमिका निभाते हुए कुशासन को बढ़ाना देने के लिए सूचना कानून को कमजोर किया है।
इसलिए आनलाइन पिटिशन पर हस्ताक्षर करके अपना विरोध अवश्य दर्ज करायें। इसके लिए यहां क्लिक करें-
http://www.petitiononline.com/rtibihar/petition.html

संशोधन के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें
http://mohallalive.com/2009/11/19/nitish-government-changed-right-to-information-act/

ARTICLE of Sri Manikant Thakur in BBC Hindi सूचना के अधिकार पर अत्याचार?
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/11/091121_bihar_rti_pp.shtml?s

Monday, September 7, 2009

स्मिता और डिसूजा के सच की दुनिया
विष्णु राजगढ़िया
कोई खुद अपना सच सार्वजनिक करना चाहता है। इसमें दूसरों को कोई आपत्ति नहीं। फिलहाल तो अपन ऑल्विन डिसूजा और स्मिता मथाई के लिए चिंतित हैं कि सच का सामना के बाद उनकी दुनिया क्या होगी।

पहले एपिसोड में स्मिता मथाई ने सच का सामना किया। यह मध्यवर्गीय शिक्षिका को अपना घर चलाने के लिए डिब्बाबंद भोजन की भी आपूर्ति करनी पड़ती है। पति शराबी जो ठहरा। एपिसोड में पति महोदय के सामने स्मिता मथाई मानती है कि सिर्फ बच्चों के कारण वह पति के साथ है। यहां तक कि वह अपने पति की हत्या करने और उसे धोखा देने तक की सोचती है।
अगला सवाल था- अगर आपके पति को पता नहीं चले तो क्या आप किसी गैर-मर्द के साथ हमबिस्तर होंगी? स्मिता मथाई का जवाब था- नहीं। लेकिन पोलिग्राफ मशीन कहती है कि स्मिता मथाई झूठ बोल रही है। इस वक्त तक पांच लाख रुपये कमा चुकी स्मिता मथाई को खाली हाथ लौटना पड़ा।
पांचवें एपिसोड में ऑल्विन डिसूजा ने अपने सारे पाप कबूल लिये। अपनी मां, बहन, सास और पत्नी के सामने। चोरी-छिपे लेडिज टॉयलेट में घुसने और काम के बहाने दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करने की बात उसने गर्व के साथ स्वीकारी। उसने माना कि अगर बीबी को पता नहीं चले तो वह किसी अन्य लड़की के साथ शारीरिक संबंध बना सकता है, लेकिन अगर बीबी धोखा देगी तो बर्दाश्त नहीं। वह पत्नी के साथ अंतरंग पलों में दूसरी के सपने भी देखता है। वह जोरू का गुलाम है। वह सोचता है कि उसकी बीबी कोई और होती।
सामने बैठी पत्नी उर्वशी ने हर सच के 'सच होने पर खुशी से तालियां बजायीं। ऑल्विन डिसूजा ने सारा सच मुसकुराते हुए स्वीकारा। लेकिन उसने यह नहीं माना कि क्रूज शिप में नौकरी के दौरान यात्री के सामान चुराये। पोलिग्राफ मशीन ने इसे डिसूजा का झूठ माना। उस वक्त तक जीते हुए दस लाख गंवाकर वह खाली हाथ लौटा।
स्मिता ने पति और ऑल्विन ने पत्नी के सामने ऐसी बातें मानीं जो शेष जीवन में जहर घोल सकती हैं। लेकिन प्रतियोगी और परिजन, सब सहज प्रसन्न्ता के साथ तालियां बजा रहे थे। दरअसल उन्हें एक करोड़ रुपये दिख रहे थे। सच कबूलने के इतने पैसे मिलें तो सब पाप माफ। लेकिन खाली हाथ लौटे प्रतियोगी के पाप को कौन अपनायेगा? स्मिता ने तो मान लिया कि वह ग्राहकों को बासी खाना परोसती है। कौन लेगा उससे टिफिन? कार्यस्थल पर यात्री का सामान चुराने वाले के लिए भला किस कंपनी में जगह? चोरी का कोई पुराना केस भी खुल जाये तो क्या कहना!

Thursday, July 30, 2009


हिंसा में मनोरंजन

-रघुवीर सहाय

अत्याचार के शिकार के लिए
समाज के मन में जगह नहीं
तब जो बताते हैं
वह उसका दुख नहीं
आपका मनोरंजन होता है.

Wednesday, July 29, 2009

भारतीय

-रघुवीर सहाय

हम भारतीय हैं
धन्यवाद, धन्यवाद,
क्षमा कीजियेगा,
नहीं कहते हैं.
हम सिर्फ देखते हैं
अपनी आंखों से
और ले लेते हैं पानी भरा गिलास
फिर से उधर एक बार
देखकर.

रघुवीर सहाय एवं महेश्वर को समर्पित यह ब्लाग

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हम सच बोलते हैं तो हमें लगता है कि हमारी शक्ति का असर होना चाहिए.

लेकिन जब हम अधूरे सच या झूठ बोलनेवालों की शक्ति का असर ज्यादा होता हुआ पाते हैं तो माथा ठनकता है कि ऐसा क्यों हो रहा है.
पता चलता है कि सच बोलने से ही काम नहीं चलेगा.
अगर हम चाहते हैं कि सच को ज्यादा लोग सच समझें भी और सच को समझकर उसके अनुसार आचरण भी करें, तो सच के व्यापक प्रचार के साधनों का इस्तेमाल भी करना पड़ेगा.......
(लेकिन) पता चलता है कि प्रचार के साधन उनके पास ज्यादा हैं, जिन्हें आधे सच का प्रचार करना है....
--रघुवीर सहाय
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’’सत्य को जानो, वह तुम्हें मुक्त करेगा’’ - इस पुरानी अमरीकी कहावत को दुहराते हुए हमारा प्रेस कहता है कि वह सच्चाई और सिर्फ सच्चाई से प्रतिबद्ध है.
......वह सत्य क्या है? इस सत्य का कोई मकसद- उसकी कोई दिशा होती है या नहीं? उसका समाज के विकास में और इस विकास के रथ को आगे बढ़ानेवाली सामाजिक शक्तियों के उत्थान में कोई योगदान है या नहीं?
सत्य के दायरे में सामाजिक आलोचना की कोई जगह है या नहीं?
और अगर इसके लिए जगह है तो आदमी को विचारवान बनाने में उसकी कोई भूमिका होगी या नहीं???
--महेश्वर

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